श्लोक १३-२१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
युगान्ते प्रचलेन्मेरुः कल्पान्ते सप्त सागराः ।
साधवः प्रतिपन्नार्थान्न चलन्ति कदाचन ॥ १३-२१॥
युग के अंत में मेरु पर्वत भी हिल जाता है, कल्प के अंत में सात सागर भी बह जाते हैं, परंतु साधु अपनी प्राप्त लक्ष्यों के लिए कभी विचलित नहीं होते।

जीवन में स्थिरता और धैर्य की चरम सीमाएँ इस प्रकार निर्धारित की जा सकती हैं कि सबसे बड़े प्राकृतिक और कालगत परिवर्तन भी साधु के संकल्प को हिला नहीं सकते। युग के अंत में मेरु पर्वत का हिलना और कल्प के अंत में सात सागरों का बह जाना इस बात का प्रतीक है कि ब्रह्मांड के सबसे स्थायी और विशाल तत्व भी समय के प्रवाह में परिवर्तनशील हैं। परन्तु साधु, जो अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय रखते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होते।

यह स्थिरता केवल मानसिक अडिगता नहीं, बल्कि गहन आत्म-साक्षात्कार और लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण का फल है। साधु की मानसिकता ऐसी होती है कि वह बाह्य संसार के उतार-चढ़ाव, अस्थिरताओं और विपत्तियों से प्रभावित नहीं होता। जैसे भौतिक जगत के स्थायी प्रतीक भी परिवर्तनशील हैं, वैसे ही जीवन के बाहर के तत्व क्षयशील हैं, परंतु अन्तर्निहित सत्य और ध्येय को साधु के मन में न कभी कमजोर किया जा सकता है और न ही नष्ट।

यह सोच हमें यह प्रश्न पूछने के लिए मजबूर करती है: क्या हमारे उद्देश्य और आदर्श इतने दृढ़ हैं कि वे समय और परिस्थिति के भंवर में भी विचलित न हों? क्या हम साधु की तरह अपने लक्ष्य के प्रति इतने समर्पित हैं कि संसार की हर विपत्ति, हर प्राकृतिक आपदा, हर सामाजिक अथवा व्यक्तिगत संकट में हम डगमगाएँ नहीं? यह स्थिरता केवल दृढ़ निश्चय की बात नहीं, बल्कि चरित्र की परीक्षा है, जो व्यक्ति को मानवता के परे ले जाती है और उसे एक दिव्य समान स्तर पर स्थापित करती है।

स्थिरता के इस स्तर को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है निरंतर अभ्यास, आत्म नियंत्रण और संस्कारों का गहरा प्रभाव। साधु की विचलनहीनता मनुष्य की सबसे बड़ी विजय है क्योंकि वह बाहरी घटनाओं के अनियंत्रण को स्वीकारते हुए भी अपने भीतर पूर्ण शांति और लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता बनाए रखता है। यह वह स्थिति है जहाँ मन, बुद्धि और आत्मा के बीच समरसता होती है और जो क्षणिक संसार की क्षणभंगुरताओं से अछूता रहता है।

इसलिए स्थिरता की यह अवधारणा केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं, वरन् सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में भी सर्वोपरि है। व्यक्ति और समाज तभी सच्चे अर्थों में विकसित हो सकते हैं जब उनकी नींव ऐसी हो जो प्रकृति के विशालतम और दीर्घकालीन परिवर्तन को सहन कर सके। यही स्थिति निरंतर प्रगति और सद्गुणों की वृद्धि का आधार बनती है।