श्लोक १३-२०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाभिवन्दते ।
श्वानयोनिशतं गत्वा चाण्डालेष्वभिजायते ॥ ॥१३-२०॥
जो व्यक्ति एक अक्षर का ज्ञान देने वाले गुरु को भी नमस्कार नहीं करता, वह सौ बार कुत्ते की योनि को प्राप्त कर चाण्डालों में जन्म लेता है।

गुरु के प्रति श्रद्धा केवल सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई से जुड़ा हुआ वह भाव है जो मनुष्य के जीवन को दिशा और गति प्रदान करता है। एक अक्षर का ज्ञान — चाहे वह भाषा हो, सिद्धांत हो, या कोई सूक्ष्म सत्य — जीवन के सम्यक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उस ज्ञान को देने वाला चाहे कितना भी छोटा दिखे, उसकी उपेक्षा करना, स्वयं ज्ञान और धर्म की उपेक्षा करना है।

जो व्यक्ति अपने अहंकार, दम्भ या असंवेदनशीलता के कारण गुरु को सम्मान नहीं देता, वह मूल रूप से उस चेतना को नकारता है जो ज्ञान को संभव बनाती है। 'अभिवंदन' यहाँ मात्र शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि कृतज्ञता, विनम्रता, और आत्मनियंत्रण का प्रतीक है। जब यह भाव समाप्त हो जाता है, तब व्यक्ति का पतन केवल बाह्य स्तर पर नहीं, बल्कि उसकी आत्मा के स्तर पर भी होता है।

श्वानयोनि का उल्लेख प्रतीकात्मक है — यह उस अवस्था को दर्शाता है जहाँ विवेक, आत्मसंयम, और मर्यादा का लोप हो जाता है। कुत्ते की प्रवृत्तियाँ — लोभ, चंचलता, अथवा जुगुप्सा — उस आत्मा की दशा हैं जो गुरु-द्रोह से जन्मी होती है। सौ बार इस योनि में जाने का संकेत यह दर्शाता है कि ऐसा पाप अल्प नहीं, बल्कि अत्यंत गहन और दूरगामी प्रभाव वाला है।

चाण्डाल जाति का पुनर्जन्म भी केवल सामाजिक अपमान नहीं, बल्कि आत्मिक अपवित्रता का बिंब है। चाण्डाल वह होता है जो समाज की मर्यादाओं, श्रम, तप, और सच्चरित्रता से बहिष्कृत हो चुका होता है। जब गुरु का अनादर किया जाता है, तो उसका परिणाम केवल एक जीवन में नहीं, बल्कि अनेक जन्मों तक फैलता है।

गुरु के प्रति श्रद्धा और नम्रता न केवल सीखने की योग्यता उत्पन्न करती है, बल्कि आत्मा को शुद्धि, विस्तार और उन्नयन की ओर ले जाती है। ज्ञान का वास्तविक प्रभाव तभी संभव है जब उसमें देने वाले के प्रति सम्मान जुड़ा हो। एक अक्षर तक के ज्ञान का आदर करना, आत्मविकास की सूक्ष्मता को समझना है। यही आंतरिक विनम्रता व्यक्ति को भीतर से तेजस्वी बनाती है।

जो गुरु को केवल एक साधन मानते हैं और आदरभाव से वंचित रहते हैं, वे उसी प्रकार की अवस्था को प्राप्त करते हैं जहाँ ज्ञान और विवेक की कोई दिशा नहीं होती — केवल पशुवृत्तियों और आत्महीनता का अंधकार होता है।