सुगृहीतं च कर्तव्यमन्यथा तु न जीवति ॥ ॥१४-१९॥
जीवन केवल शरीर को चलायमान रखने का नाम नहीं है, बल्कि उसकी आत्मा इन पाँच तत्त्वों में निहित है — धर्म, धन, अन्न, गुरु का वचन और औषध। इन तत्त्वों का महत्व केवल उनके अस्तित्व में नहीं, बल्कि उन्हें किस प्रकार से स्वीकार किया गया है, इस पर निर्भर करता है।
धर्म वह संबल है जो मनुष्य को पशुता से ऊपर उठाकर विवेकशील बनाता है। परंतु धर्म का दिखावा या अधूरा पालन व्यर्थ है। जब तक धर्म को सही प्रकार से, समझ के साथ अपनाया न जाए, वह केवल एक आडंबर बनकर रह जाता है।
धन का मूल्य उसके संग्रह में नहीं, बल्कि उसके सदुपयोग में है। गलत तरीके से अर्जित धन या संग्रहित धन जो समाज और आत्मोन्नति में उपयोग नहीं होता, वह अभिशाप बन जाता है। उसी प्रकार अन्न केवल पेट भरने के लिए नहीं, जीवन की गुणवत्ता को निर्धारित करने वाला तत्त्व है। विषाक्त अन्न शरीर को नष्ट करता है, और अपवित्र अन्न मन को।
गुरु का वचन — यह केवल शब्द नहीं, बल्कि जीवन के अनुभव और ज्ञान का निष्कर्ष होता है। यदि शिष्य इसे सतर्कता और श्रद्धा से न सुने, तो उसका जीवन अंधकारमय हो जाता है। गुरु का वचन जीवनदायी औषधि के समान है, जो केवल तभी प्रभावी होती है जब उसे विधिपूर्वक और समय पर ग्रहण किया जाए।
औषध का अर्थ यहाँ केवल भौतिक चिकित्सा से नहीं, मानसिक और आत्मिक उपचार से भी है। अनुचित समय पर ली गई औषध, या बिना विश्वास और समझ के ली गई औषध, लाभ के बजाय हानि करती है। जीवन के सभी संकटों का समाधान केवल औषध या उपचार में नहीं, बल्कि उसे 'सुगृहीत' करने की योग्यता में है।
'सुगृहीत' का आशय मात्र 'ग्रहण करना' नहीं, बल्कि उचित समय, विधि, श्रद्धा और समझ के साथ उसे अपनाना है। यदि इन पाँचों को बिना समझे, सतही रूप में ग्रहण किया जाए तो वे उपयोगी नहीं रहते — बल्कि व्यक्ति का पतन और मृत्यु तक भी कारण बन सकते हैं। यह मृत्यु केवल शारीरिक नहीं, नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मृत्यु भी हो सकती है।
जीवन की स्थायित्व और समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि मनुष्य इन तत्त्वों को कितनी गहराई और जागरूकता से अपने जीवन में उतारता है। धर्म, धन, अन्न, गुरु वचन और औषध — ये सभी तभी जीवनदायी हैं जब उन्हें सम्मान, विवेक और विधि से स्वीकार किया जाए। अन्यथा, जीवन केवल एक असंतुलित, निरर्थक और विनाशकारी यात्रा बनकर रह जाता है।