सुगृहीतं च कर्तव्यमन्यथा तु न जीवति ॥ ॥१४-१९॥
जीवन की संरचना केवल भौतिक संसाधनों पर आधारित नहीं होती, बल्कि कुछ मूलभूत सिद्धांत और अनुशासन ऐसे होते हैं जिनका समुचित ग्रहण जीवन के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। धर्म, धन, अन्न, गुरु का वचन और औषध — ये पाँच स्तंभ एक व्यक्ति को न केवल स्थायित्व प्रदान करते हैं, बल्कि उसके मानसिक, शारीरिक, और सामाजिक स्वास्थ्य की रक्षा भी करते हैं।
धर्म वह नैतिक और आध्यात्मिक आधार है जो मनुष्य के कर्मों को दिशा देता है। इसका त्याग जीवन को पशुवत बना देता है जहाँ मूल्य, विवेक और उत्तरदायित्व का स्थान नहीं होता। यदि धर्म को केवल अनुष्ठान समझकर त्याग दिया जाए, तो जीवन केवल एक आत्मकेन्द्रित प्रवाह बन जाता है जिसमें न समाज की चिंता होती है, न आत्म-उन्नयन की।
धन की उपेक्षा भी उतनी ही घातक है। जो व्यक्ति धन को हेय समझकर त्याग देता है, वह स्वयं और अपने आश्रितों की सुरक्षा और गरिमा को संकट में डालता है। परन्तु यह भी स्मरण रहे कि धन का अर्थ केवल संग्रह नहीं, अपितु उसके उचित उपयोग और संयमित उपभोग में है। न तो धनहीनता आदर्श है, न ही धन की अपार लोलुपता।
धान्य यानी अन्न, मानव जीवन के लिए सबसे प्रत्यक्ष और अपरिहार्य आवश्यकता है। भोजन न केवल शरीर को पोषण देता है, बल्कि यह सामाजिक संतुलन और समरसता का प्रतीक भी है। जिन समाजों में अन्न का वितरण असमान होता है, वहाँ अशांति और शोषण का जन्म होता है। इसीलिए अन्न को 'परम दान' कहा गया है — इसकी उपेक्षा जीव की मृत्यु की ओर ले जाती है।
गुरु का वचन वह अमूल्य बौद्धिक औषध है जो व्यक्ति को अज्ञान, भ्रम और अहंकार से मुक्त करता है। यदि व्यक्ति गुरु के निर्देश को ग्रहण नहीं करता, तो वह न केवल अपने आत्मिक पतन की ओर अग्रसर होता है, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी अराजकता का कारण बनता है। गुरु वाक्य किसी सिद्धांत से कम नहीं होते; उनका आदर ही जीवन में दिशा और नियंत्रण प्रदान करता है।
औषध — वह कारक है जो शरीर की जर्जरता और रोग से रक्षा करता है। यदि रोग हो और औषध न ली जाए, तो जीवन का अंत सुनिश्चित है। किन्तु इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है कि औषध को समय पर और विधिपूर्वक ग्रहण करना आवश्यक है। विलंब या लापरवाही औषध को भी व्यर्थ कर देती है।
इन पाँचों का 'सुगृहीतं' — अर्थात सही प्रकार से, श्रद्धा से, विधिपूर्वक और समयबद्ध रूप से ग्रहण किया जाना — यही जीवन का मूलमंत्र है। केवल जानना पर्याप्त नहीं, उसे आत्मसात करना, आचरण में उतारना और साधना में रूपांतरित करना ही व्यक्ति को जीवित और सार्थक बनाता है।