श्लोक १४-१६

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षितः ।
कुणपं कामिनी मांसं योगिभिः कामिभिः श्वभिः ॥ ॥१४-१६॥
एक ही वस्तु तीन प्रकार से देखी जाती है — कामिनी को योगी अपवित्र शव के समान, कामी पुरुष भोग्य स्त्री के रूप में, और कुत्ते मांस के रूप में देखते हैं।

मानव दृष्टिकोण की विविधता किसी भी वस्तु को कैसे भिन्न-भिन्न अर्थों में परिवर्तित कर सकती है, यह एक गहन दर्शन का विषय है। एक ही पदार्थ भिन्न दृष्टिकोणों से भिन्न रूपों में देखा जाता है। 'कामिनी' — जिसे समाज सामान्यतः सौंदर्य, आकर्षण या प्रेम की प्रतीक मानता है — वह स्वयं में कोई निश्चित नैतिक गुण या दोष नहीं रखती, परंतु उसे देखनेवाले की वृत्ति ही उसका मूल्य तय करती है।

योगी उसे 'कुणप' यानी मृत शरीर के समान देखते हैं। उनके लिए भोग या देह नहीं, आत्मा ही लक्ष्य होती है। वह जानते हैं कि शरीर नश्वर है, विकृतियों से युक्त है, और इसके प्रति आसक्ति केवल बंधन को बढ़ाती है। शरीर को शव के रूप में देखनेवाली यह दृष्टि वैराग्य, विवेक और आत्मज्ञान की चरम अवस्था की परिचायक है।

कामी व्यक्ति उसी स्त्री को भोग की वस्तु मानता है — एक उपभोग्य सामग्री जिसे पाने का प्रयास उसकी वासना को संतुष्ट करने हेतु होता है। यहाँ चेतना नहीं, केवल इच्छा है। इस दृष्टिकोण में स्त्री कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, बल्कि उसकी वासनाओं की पूर्ति का माध्यम मात्र बन जाती है।

तीसरी दृष्टि — श्वान की — और भी अधिक नग्न और निर्लज्ज है। वह केवल मांस देखता है। चेतना, भावना, या सामाजिक मूल्य की कोई भूमिका नहीं। यह दृष्टि केवल पशुता की प्रतिनिधि है, जहाँ स्वाद, भूख और इंद्रिय की उत्तेजना के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

इस त्रैविध्य दृष्टिकोण का मूल उद्देश्य केवल स्त्री या विषय की आलोचना नहीं है, बल्कि यह चेतावनी है कि दृष्टिकोण की शुद्धता ही मूल्य की शुद्धता है। वस्तु वही रहती है, लेकिन देखता कौन है — यह निर्णायक होता है। यह केवल स्त्री विषय तक सीमित नहीं; किसी भी व्यक्ति, विचार, परिस्थिति, या वस्तु पर लागू किया जा सकता है। एक संत जहाँ तितिक्षा और त्याग देखता है, वहीं व्यापारी लाभ और घाटे की संभावना देखता है, और एक मूर्ख उसमें केवल समय का व्यर्थ व्यय।

यह दृष्टिकोणों का दर्शन मनुष्य की मानसिक अवस्था, संस्कार, और साधना की प्रामाणिकता को दर्शाता है। जो अपनी इंद्रियों का नियंत्रण करता है, उसकी दृष्टि वस्तु के स्वरूप में नहीं, उसकी वास्तविकता में होती है। जबकि जो इंद्रियों के अधीन है, वह उसी वस्तु को विकृत, वासना या मोह के चश्मे से देखता है।

समाज, राजनीति, धर्म, शिक्षा — सभी क्षेत्रों में इस मूल्य-दृष्टि का प्रभाव है। क्या हम किसी निर्णय को अपने विकृत वासनात्मक दृष्टिकोण से ले रहे हैं, या योगी की विवेकदृष्टि से? यह अंतर ही व्यक्ति के पतन या उत्कर्ष का निर्धारण करता है।