आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः ॥१४-१५॥
बुद्धिमत्ता केवल विद्या में निहित नहीं होती, बल्कि व्यवहार की सूक्ष्मता में प्रकट होती है। किसी व्यक्ति की सच्ची बुद्धिमत्ता इस बात में प्रकट होती है कि वह कब, क्या, और कैसे बोले — न कि वह कितना जानता है। वाणी यदि अनुचित समय पर हो, तो वह चाहे कितनी भी सत्य क्यों न हो, असफल सिद्ध होती है। समय के अनुसार बोलना, जैसे बीज को सही ऋतु में बोया जाए, तभी वह फलदायक होता है।
इसी प्रकार, प्रियता भी तब सार्थक है जब वह प्रभाव के अनुरूप हो — यदि कोई व्यक्ति अधिक शक्तिशाली है, तो वहाँ झूठी चाटुकारिता नहीं, बल्कि मर्यादित प्रियता अपेक्षित है। वहीं, यदि कोई कमजोर है, तो उसका आदर करना शक्ति का उपयोग संयमपूर्वक करना कहलाता है। प्रियता का मूल्य तब है जब वह सम्मान और प्रभाव के संतुलन में हो।
क्रोध — यह सबसे खतरनाक हथियार है जो यदि आत्मशक्ति से अधिक हो जाए तो आत्मविनाश का कारण बनता है। शक्तिहीन व्यक्ति यदि अत्यधिक क्रोध में आ जाए, तो वह न केवल हास्य का पात्र बनता है, बल्कि स्वयं को भी संकट में डाल देता है। वहीं, शक्तिशाली व्यक्ति का क्रोध यदि संयमित हो, तो वह अनुशासन और प्रेरणा का साधन बनता है। अतः बुद्धिमान वही है जो अपनी शक्ति का वास्तविक मूल्यांकन जानता है और उसी अनुरूप प्रतिक्रिया देता है।
जो व्यक्ति प्रसंग के अनुसार वाणी का प्रयोग करता है, दूसरे के प्रभाव और गरिमा के अनुसार मधुर व्यवहार करता है, और आत्मबल के अनुसार ही क्रोध करता है — वही व्यक्ति न केवल अपने जीवन में संतुलन बनाए रखता है, बल्कि समाज में भी सम्मान का पात्र बनता है। यह संतुलन ही बुद्धिमत्ता का मापदंड है।
बोलना, व्यवहार करना और प्रतिक्रिया देना — यह तीनों मनुष्य के आचरण के स्तंभ हैं। इन तीनों को यदि व्यक्ति सही मात्रा, समय और शक्ति के अनुसार नियंत्रित करता है, तो वह स्वयं को न केवल सफल बनाता है, बल्कि दूसरों के लिए अनुकरणीय भी।