नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणहराणि षट् ॥ ॥१४-१२॥
मनुष्य का जीवन अनेक अस्थिरताओं और अनिश्चितताओं से घिरा हुआ है। कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं जो अत्यंत आकर्षक या सामान्य प्रतीत होते हुए भी भीतर से विनाशकारी हो सकते हैं — ये बाहरी रूप से मित्रवत लग सकते हैं, किन्तु भीतर उनकी प्रकृति तीव्र, अनियंत्रित और घातक हो सकती है। अग्नि की गर्मी सुख देती है, पर निकट जाने पर वही अग्नि जीवन छीन सकती है। जल जीवन का आधार है, पर उसकी गहराई अनजानी हो तो वह मृत्यु का द्वार बन जाता है।
स्त्रियाँ — विशेषतः उस सन्दर्भ में जहाँ आकर्षण या वासना के कारण विवेक शून्य हो जाए — मनुष्य को अस्थिर बना सकती हैं। यहाँ 'स्त्री' का प्रयोग केवल लिंग सूचक न होकर, आकर्षण व मोह की प्रतीकात्मकता लिए हुए है। यह कामना, वासना और नियंत्रणहीन भावनाओं की शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जो अनियंत्रित हो जाने पर पतन का कारण बनती है।
मूर्ख व्यक्ति — जो न तो सही-गलत का भेद जानता है और न ही निर्णय की क्षमता रखता है — उसके साथ संपर्क में रहना भी एक प्रकार का जोखिम है। मूर्ख की संगति में बुद्धिमान भी संकट में पड़ सकता है क्योंकि उसकी मूर्खता का मूल्य प्रायः दूसरों को चुकाना पड़ता है।
सर्प — वह साक्षात् मृत्यु का प्रतीक है। किन्तु उसका भय केवल उसके डंक में नहीं, अपितु उसके स्वभाव की अनिश्चितता में है। कब वह आक्रमण करे, यह अनुमान करना कठिन है। ठीक ऐसा ही स्वरूप होता है सत्ता के केंद्रों — अर्थात् राजकुलों — का। वहाँ कृपा और क्रोध, दोनों क्षणिक होते हैं, और समीपता चाहे प्रशंसा से उपजे या सेवा से, वह प्राणघातक हो सकती है यदि संतुलन न रखा जाए।
इन छहों के साथ व्यवहार में अत्यंत यत्न और संतुलन आवश्यक है। अति निकटता या अति निर्भरता संकट को आमंत्रण देती है, और पूर्ण दूरी अवसरों से वंचित कर सकती है। यह एक जटिल संतुलन है, जहाँ सावधानी, विवेक, और स्थिर मनोबल ही सुरक्षा के उपकरण हैं। यह तत्त्व न स्वयं बुरे हैं, न ही उनसे पूरी तरह बचा जा सकता है — किन्तु इनका स्पर्श नियंत्रण में, सीमित और विवेकपूर्ण हो, यही जीवन रक्षा की कुंजी है।