श्लोक १४-१३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
स जीवति गुणा यस्य यस्य धर्मः स जीवति ।
गुणधर्मविहीनस्य जीवितं निष्प्रयोजनम् ॥ ॥१४-१३॥
वह जीवित है जिसके पास गुण हैं, वह जीवित है जिसके पास धर्म है। गुण और धर्म से रहित व्यक्ति का जीवन निष्प्रयोजन होता है।

जीवन की माप केवल श्वासों की गणना से नहीं होती। यह तो केवल शरीर का अस्तित्व है, न कि जीवंतता का प्रमाण। असली जीवन वही है जिसमें गुण हों — अर्थात् चारित्रिक विशेषताएँ, विवेक, दया, शील, और व्यवहार की गरिमा। इसी प्रकार धर्म — केवल धार्मिकता नहीं, बल्कि जीवन के प्रति उत्तरदायित्व, कर्तव्यबोध, और आचरण की मर्यादा — वह मापदंड है जो एक सामान्य अस्तित्व को सार्थकता प्रदान करता है।

प्रश्न यह नहीं है कि कोई जीवित है या नहीं, बल्कि यह है कि उसकी उपस्थिति किसी मूल्य की है या नहीं। गुण और धर्म वह नींव हैं जिन पर सामाजिक सम्मान, आत्मगौरव, और अस्तित्व की प्रासंगिकता टिकी होती है। इनके बिना मनुष्य केवल एक चलती-फिरती देह रह जाता है — न समाज के लिए उपयोगी, न स्वयं के लिए प्रेरणास्पद।

विवेकशीलता, सत्यप्रियता, सहानुभूति, और आत्मसंयम जैसे गुण मनुष्य को पशु से पृथक करते हैं। ये वे आंतरिक विशेषताएँ हैं जो जीवन को मूल्यवान बनाती हैं। वहीं धर्म — जो कर्म और आचरण की मर्यादा है — यह तय करता है कि वह जीवन किस दिशा में गतिशील है। यदि कोई व्यक्ति इन दोनों से विहीन है, तो उसका जीवन मात्र उपभोग, स्वार्थ और जड़ता का प्रतीक है।

क्या किसी वृक्ष का अस्तित्व तब भी सार्थक माना जा सकता है यदि उसमें न छाया हो, न फल, न पुष्प? क्या एक दीपक जिसकी लौ बुझ चुकी हो, उसे प्रकाशित मान सकते हैं? ऐसे ही, गुण और धर्म से रहित मनुष्य, भले ही चलता-फिरता हो, जीवन की असली परिभाषा से कोसों दूर होता है।

यह जीवन आत्मा की अभिव्यक्ति है, न कि मात्र शरीर का रख-रखाव। आत्मा का स्वरूप ही गुणों में प्रकट होता है, और धर्म उसकी दिशा तय करता है। यह कोई अलौकिक विचार नहीं, बल्कि व्यावहारिक यथार्थ है। ऐसे समाज जहाँ गुण और धर्म गौण हो जाएँ, वहाँ व्यक्तित्व केवल आर्थिक या भौतिक मापदंडों से तौले जाते हैं, और परिणामस्वरूप जीवन एक खोखली दौड़ में परिवर्तित हो जाता है।

गुण और धर्म से रहित जीवन में उद्देश्य नहीं होता, प्रेरणा नहीं होती, और न ही कोई गंतव्य। वह केवल दिन काटने की प्रक्रिया बन जाता है — न निर्माणकारी, न प्रेरक। जीवन का मूल्य इसकी गहराई, प्रतिबद्धता और आदर्शों में होता है — और यह केवल गुणों और धर्म से ही संभव है।