श्लोक १४-११

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदा ।
सेव्यतां मध्यभावेन राजा वह्निर्गुरुः स्त्रियः ॥ ॥१४-११॥
अत्यधिक समीपता विनाश का कारण बनती है, और अत्यधिक दूरी से फल नहीं मिलता। राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री — इनकी सेवा मध्यम भाव से की जाए।

मानव संबंधों में संतुलन की कला एक अत्यंत सूक्ष्म और जटिल कौशल है। अत्यधिक निकटता, जहाँ एक ओर आत्मीयता का भ्रम देती है, वहीं दूसरी ओर वह सम्मान, भय और मर्यादा की सीमाओं को मिटा सकती है। इससे रिश्ते में न केवल असंतुलन उत्पन्न होता है, बल्कि आत्मघातक स्थितियाँ भी पैदा हो सकती हैं। वहीँ दूसरी ओर, अत्यधिक दूरी भी व्यक्ति को निस्तेज कर देती है—उससे अपेक्षित लाभ, मार्गदर्शन या ऊर्जा का संचार नहीं हो पाता। यह द्वैधता विशेष रूप से उन चार क्षेत्रों में अत्यंत संवेदनशील होती है जहाँ सत्ता, ऊर्जा, शिक्षा, और भावनात्मक जटिलताएँ एक साथ उपस्थित होती हैं — राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री।

राजा के साथ अत्यधिक घनिष्ठता या स्वतंत्रता सत्ता की गरिमा और अनुशासन को भंग कर सकती है। मित्रता का आवरण राजकीय निर्णयों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। दूसरी ओर, यदि कोई राजा से अत्यधिक दूर रहे, तो वह राजनीतिक अनुदान, संरक्षण या न्याय से वंचित रह सकता है। अग्नि की प्रकृति भी यही है — अधिक समीप जाने पर वह जला देती है, परंतु यदि उससे बहुत दूर रहा जाए, तो वह ताप प्रदान नहीं करती।

गुरु के साथ अति घनिष्ठ संबंध शिष्य के लिए अनुशासन और श्रद्धा के ह्रास का कारण बन सकता है। जहाँ आदर का स्थान समानता या भावनात्मक निर्भरता ले ले, वहाँ ज्ञान का प्रवाह रुक जाता है। गुरु की दूरी भी आवश्यक है, पर वह इतनी नहीं होनी चाहिए कि संवाद और सान्निध्य ही बाधित हो जाए। स्त्री के संदर्भ में यह सन्देश भावनात्मक, सामाजिक और कामनात्मक सभी स्तरों पर लागू होता है। अत्यधिक आसक्ति व्यक्ति को विवेकहीन बना देती है; और अत्यधिक दूरी संबंध को निर्जीव।

‘मध्यभाव’ — यही इस सूत्र का सार है। यह संतुलन उस 'समीपता की दूरी' को परिभाषित करता है जहाँ आदर बना रहता है, आत्म-संयम अक्षुण्ण रहता है, और संबंधों से पोषण प्राप्त होता है, न कि विनाश। यह व्यवहार की वह सीमा है जहाँ न तो चाटुकारिता है, न उदासीनता; न अति आत्मीयता है, न संपूर्ण उपेक्षा।

मनुष्य स्वभावतः चरम सीमाओं की ओर झुकता है — या तो अत्यधिक मोह में डूब जाता है, या उदासीनता की कठोर दीवार खड़ी कर देता है। यह प्रवृत्ति जीवन के उन क्षेत्रों में विशेषतः हानिकारक है जहाँ शक्ति, ज्ञान, कामना, और नियंत्रण के गहन तंतु विद्यमान होते हैं। यहाँ मध्यमार्ग ही वह यथार्थ है जो न केवल सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि व्यक्ति को आत्मविकास का मार्ग भी देता है।

मूलतः, यह दृष्टिकोण जीवन के सभी जटिल संबंधों में लागू होता है। चाहे वह सत्ता से संबंध हो, ज्ञान से, अग्नि रूपी ऊर्जा से, या स्त्री के साथ कामनात्मक, दैहिक, या मानसिक संबंध — सभी में संतुलन, मर्यादा और विवेकपूर्ण दूरी ही सफलता और स्थिरता की कुंजी है।