श्लोक १३-०९

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम् ।
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः ॥१३-०९॥
धर्मरहित शरीर को जीवित मृत्युवत् समझना चाहिए। धर्मयुक्त मृत्यु के बाद कोई संदेह नहीं कि जीवन लंबा होता है।

जीवन का केवल शारीरिक अस्तित्व ही पूर्ण जीवन नहीं कहलाता। जीवन की सार्थकता और मूल्य तब समझ में आता है जब उसमें धर्म की उपस्थिति हो। धर्म केवल धार्मिक कृत्यों या अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, अपितु यह नैतिकता, कर्तव्य, सत्यनिष्ठा, और सामाजिक-आचार्यों का समन्वय है, जो किसी व्यक्ति के चरित्र और कर्मों का आधार बनता है। जब शरीर धर्म से रहित होता है, तो उसे जीवित मृत माना जा सकता है। ऐसे शरीर में केवल मांस-पेशियों का संचालन होता है, परन्तु उसकी आत्मा, मन और बुद्धि में वह ऊर्जा, प्रेरणा और दिशा का अभाव होता है जो जीवन को पूर्णता प्रदान करती है।

धर्म के बिना जीवन केवल एक भौतिक उपस्थिति बनकर रह जाता है। इस दृष्टिकोण से मृत्यु की भी व्याख्या नई होती है। मृत्यु का अर्थ केवल शरीर का समाप्त होना नहीं, अपितु धर्म के साथ या बिना उसके आत्मा और कर्मों के संदर्भ में जीवन की निरन्तरता भी समझी जाती है। यदि मृत्यु धर्मयुक्त होती है, तो उसका प्रभाव दीर्घकालीन होता है और यह जीवन के गहरे आध्यात्मिक और नैतिक पक्ष को दर्शाता है।

यहां जीवन और मृत्यु की अवधारणाओं को पारंपरिक भौतिक सीमाओं से परे लेकर जाना आवश्यक है। जीवन की गहराई और उद्देश्य धर्म से सम्बद्ध हैं। दीर्घजीवन का आशय केवल समय की अवधि नहीं, बल्कि कर्मों और धर्म की स्थिति के अनुसार प्राप्त होने वाली स्थिरता और आदर्श जीवन है। ऐसे जीवन की पहचान होती है, जो समय, स्थान और परिस्थिति की बाधाओं को पार कर स्थायी प्रभाव छोड़ता है।

अतः यह विचार आवश्यक है कि जीवन का मूल्य केवल श्वास-प्रश्वास की गणना में न हो, अपितु उसमें निहित नैतिकता, कर्तव्यपरायणता और आध्यात्मिक समृद्धि में हो। शारीरिक जीवन के बिना धर्म की उपस्थिति, जीवन को मृततम बना देती है, जबकि धर्मयुक्त मृत्यु के साथ जीवन की व्यापकता और स्थिरता प्रकट होती है।