राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ॥ ॥१३-०८॥
शासन व्यवस्था में राजा का चरित्र और आचरण उसकी प्रजा के लिए प्रत्यक्ष उदाहरण और मार्गदर्शक होता है। यदि राजा धर्म में स्थिर और धर्मपालक है, तो वह स्वयं धर्म के नियमों का पालन करते हुए न्याय और नीति के मार्ग पर चलता है। इसका प्रभाव प्रजा पर गहरा पड़ता है क्योंकि राजा के व्यवहार से वे प्रेरित होते हैं और उसी प्रकार का आचरण ग्रहण करते हैं।
यह सिद्धांत सामाजिक अनुशासन और शासन की नैतिक नींव को स्थापित करता है। राजा की नैतिकता और आचरण सीधे तौर पर प्रजा के चरित्र को प्रभावित करते हैं। एक दयालु और धर्मनिष्ठ राजा के अधीन प्रजा में भी सदाचार, धर्मपालन और नैतिकता का विकास होता है, जबकि यदि राजा अधर्म में लिप्त है, तो उसकी प्रजा भी उसी पथ पर चल पड़ती है।
राजा और प्रजा के मध्य यह संबंध शासन और सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अत्यंत आवश्यक है। एक राजा जो धर्म और न्याय का पालन करता है, वह न केवल अपने राज्य का कुशल नेतृत्व करता है बल्कि सामाजिक सामंजस्य और विकास को भी बढ़ावा देता है। इसके विपरीत, अधर्मी राजा का शासन भ्रष्टाचार, अन्याय और सामाजिक असंतोष का कारण बनता है।
यह विचार राजनीति और प्रशासन में नेतृत्व के महत्व को उजागर करता है। नेतृत्व का मूल तत्व उसके नैतिक और आध्यात्मिक गुण हैं, जो सामूहिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। यह भी दर्शाता है कि शक्ति का दुरुपयोग कैसे सामाजिक पतन और पतितता को जन्म देता है।
इस दृष्टि से, राजा की जिम्मेदारी केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि नैतिक और धार्मिक भी होती है। राजा के चरित्र में जितनी सच्चाई और धर्म होगा, उसका राज्य उतना ही स्थिर, समृद्ध और न्यायपूर्ण होगा।