स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत् सुखम् ॥ १३-०६॥
स्नेह के मूल दुःखों को त्याग कर सुख का निवास करे।
स्नेह (प्रेम, लगाव) का मनुष्य के जीवन में अत्यन्त प्रभावशाली स्थान है। मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से स्नेह की विविधताएँ और उनके परिणामों का अध्ययन गहन है। इस श्लोक में स्नेह के भय तथा दुःख के सम्बन्ध को सूक्ष्म रूप से उद्घाटित किया गया है।
यथा किसी व्यक्ति को यदि किसी वस्तु, व्यक्ति या भावना के प्रति अत्यधिक स्नेह होता है, तो वह स्नेह उसके लिए भय का कारण बन जाता है। भय इस आधार पर उत्पन्न होता है कि प्रिय वस्तु या व्यक्ति खो जाने का आशंका मन में व्याप्त रहती है। इस प्रकार स्नेह के साथ संलग्न भय ही दुःख का मूल कारण बनता है। जब स्नेह के मूल कारणों में भय समाहित हो जाता है, तब स्नेह स्वयं दुःख का कारक बन जाता है।
श्लोक आगे यह उपदेश देता है कि यदि कोई व्यक्ति अपने इस स्नेह के मूल दुःखों को, अर्थात् भय, आशंका, आसक्ति आदि को त्याग कर जीवन यापन करे, तब उसे सुख की प्राप्ति होती है। इस सुख का अर्थ केवल भौतिक सुख से नहीं है, बल्कि मानसिक शांति, आत्मिक समाधान और निर्विकार आनंद से भी है।
आचार्यकौटिल्य द्वारा प्रस्तुत यह विचार मनोविज्ञान, नीति दर्शन, तथा जीवन प्रवृत्तियों की सूक्ष्म समझ दर्शाता है। यह स्नेह और दुःख के गहन संबंधों का विवेचन है, जहाँ व्यक्ति के भावनात्मक बंधनों का प्रबंधन करने का निर्देश है।
स्नेह की प्रकृति समझने के लिए सबसे पहले यह विचार करना आवश्यक है कि स्नेह में अपेक्षा, आसक्ति, तथा इच्छाएँ समाहित होती हैं। जब ये अपेक्षाएँ पूरी नहीं होतीं, तब निराशा, दुःख और भय उत्पन्न होते हैं। अतः, स्नेह का भाव यदि भय से मुक्त न हो, तो वह सुख का नहीं, दुःख का कारण बनता है।
इसके अतिरिक्त, श्लोक जीवन के प्रति एक दार्शनिक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करता है, जहाँ सुख की प्राप्ति के लिए समस्त भय और दुःखों के मूल को पहचान कर त्यागना आवश्यक है। इस प्रकार यह श्लोक योग, ध्यान, तथा आत्मसाक्षात्कार की दार्शनिक पद्धतियों के साथ भी सामञ्जस्य स्थापित करता है, जहाँ आसक्ति त्यागकर मानसिक एवं आध्यात्मिक मुक्ति की ओर मार्ग प्रशस्त होता है।
यह विचार न केवल व्यक्तिगत मनोबल को सुदृढ़ करता है, बल्कि सामाजिक जीवन में भी स्थिरता और संतुलन प्रदान करता है। जब व्यक्ति भय और दुःख से मुक्त होकर स्नेह को सम्यक् प्रकार से समझता है, तभी वह स्नेह के सुखद पक्ष का अनुभव कर सकता है।
अतः यह श्लोक स्नेह, भय और दुःख के परस्पर सम्बंधों का विवेचन करते हुए जीवन के सुख साधन की एक दिशा प्रदर्शित करता है, जो निरपेक्ष स्नेह के माध्यम से भय और दुःख के बंधनों से मुक्ति है।