पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥ १३-०४॥
जीवन के मूलभूत तत्वों का प्रारंभ जन्म के पूर्व ही होता है, जब आत्मा गर्भ में होता है। आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु — ये पाँच महत्वपूर्ण आयाम केवल जीवन के पश्चात् या समाज में प्रकट होने वाली चीजें नहीं हैं, बल्कि वे पहले से ही जीव के गर्भाधान में संचित होती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीव का जीवन, उसके कर्मों का प्रवाह, संपत्ति का संग्रह, विद्या का संचय और मृत्यु का निश्चित अंत, सभी एक प्रारंभिक अवस्था से पूर्व निर्धारित और जन्मजात होते हैं।
यह विचार कर्मवाद और नियति के दर्शन को समर्थन देता है, जहां कर्म जन्म से पूर्व एक प्रकार से संचित या निर्धारित होते हैं। गर्भ के भीतर ही जीव में निहित ये पांच तत्व जीवन के अनुभव, उसकी परिस्थिति और उसके भविष्य को नियंत्रित करते हैं। यह अस्तित्व की उन जटिलताओं की ओर संकेत करता है, जो केवल बाहरी अनुभवों द्वारा नहीं, बल्कि आंतरिक स्वभाव और पूर्व कर्मों द्वारा संचालित होती हैं।
इसके अलावा, यह पंक्ति जीवन की अनित्य और चक्रीय प्रकृति की भी व्याख्या करती है — आयु का आरंभ और अंत, कर्मों की निरंतरता, धन का अर्जन और विद्या का संचय सभी जन्म से जुड़े होते हैं। गर्भ में ही ये तत्व एक रूप में मौजूद होते हैं, जो जन्म के साथ बाहर की दुनिया में प्रकट होते हैं।
यह दृष्टिकोण यह भी सुझाता है कि जीवन में उत्पन्न होने वाली परिस्थितियाँ या योग्यताएँ अचानक नहीं होतीं, बल्कि वे पूर्वाधारों, पूर्व कर्मों और पूर्व संचित ज्ञान से आकार ग्रहण करती हैं। यह प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य अपनी स्वतंत्र इच्छा से पूर्णतः स्वतंत्र है, या उसका प्रारंभिक जीवन और नियति पहले से स्थापित है? यह दर्शन विचारों के गहन समुद्र में ले जाता है, जहाँ नियति और स्वतंत्रता का द्वंद्व होता है।
आयु, कर्म, वित्त, विद्या और मृत्यु के गर्भ में संचित होने का अर्थ यह भी हो सकता है कि जीवन के मुख्य घटक स्वाभाविक रूप से संपूर्ण होते हैं, और उनका विकास जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाता है। इसलिए, जीवन के प्रत्येक पहलू का सार और प्रभाव प्रारंभ से ही जीव में अंतर्निहित रहता है, जो समय के साथ प्रकट होता है।
इस विचारधारा से एक गहरी समझ बनती है कि मनुष्य का जीवन, उसकी योग्यताएँ, कर्म और अंत सभी एक क्रम में संलग्न हैं, जो उसे पूर्वजन्मों के अनुभवों और कर्मों से जोड़ता है। जीवन की यह समष्टिगत दृष्टि व्यक्ति को अपने कर्मों के प्रति सजग बनाती है और उसकी नियति को समझने में मदद करती है।