ज्ञातयः स्नानपानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः ॥ ॥१३-०३॥
स्वभाव की सहजता से संतोष पाने का विचार अत्यंत गहन है। देव, सत्पुरुष और पिता जैसे श्रेष्ठतम लोकवासी, जो शक्ति, ज्ञान और पालनकर्ता के रूप में पूजनीय हैं, अपने स्वभाव और प्रकृति से तुष्ट होते हैं। इसका अर्थ यह है कि किसी भी बाहरी आग्रह या उपकार से नहीं, बल्कि उनकी असली संतुष्टि उनके अंतर्निहित गुणों, स्वभाव और कर्तव्यों के समुचित निर्वाह से होती है। यह संतोष बाह्य साधनों से प्रेरित नहीं होता बल्कि आंतरिक स्वरूप से जन्मा होता है।
ज्ञाताओं का स्थान भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। ज्ञाता वे हैं जो जीवन के अनुशासन और शिष्टाचार को समझते हैं। स्नान, पान और वाक्यदान ये तीन व्यवहारिक क्रियाएं हैं जो केवल भौतिक क्रियाएँ नहीं, बल्कि समाज में शुद्धता, स्वस्थ व्यवहार और सद्भावना के प्रतीक हैं। स्नान शुद्धता का प्रतीक है, पान जीवन की आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करता है, और वाक्यदान वाणी द्वारा दान यानी संवाद, स्नेह और ज्ञान के आदान-प्रदान का प्रतिनिधित्व करता है।
ज्ञाताओं का पण्डित माना जाना इस बात को दर्शाता है कि संस्कृतिवाद और ज्ञान केवल पुस्तकों में न होकर जीवन के व्यवहार में प्रकट होना चाहिए। वाक्यदान की महत्ता सामाजिक और दार्शनिक स्तर पर बहुत बड़ी है क्योंकि वाणी वह माध्यम है जिससे विचार, भाव, नीति और प्रेम व्यक्त होते हैं। बिना उचित वाक्यदान के समाज का संचालन संभव नहीं। इसलिए, ज्ञाता की पहचान उनके द्वारा प्रदत्त वाक्यदान, शिष्टाचार और संस्कारों से होती है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि संतोष की अवस्था स्वभाव से जुड़ी है, और ज्ञाता भी अपने स्वभाव के अनुरूप अपने कर्तव्यों को समझते और निभाते हैं। स्नान और पान जैसे संस्कार केवल बाहरी क्रियाएं नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के रूप में भी देखे जा सकते हैं। इसलिए, व्यक्तित्व और संस्कारों का समन्वय ही व्यक्ति को ज्ञानवान बनाता है।
यह पंक्ति यह भी इंगित करती है कि कोई भी सम्मान या उपकार बाहरी रूप से दी गई वस्तुओं से नहीं, बल्कि स्वभाव, आचार और व्यवहार से होता है। देवता और सत्पुरुष की संतुष्टि का आधार उनका स्वभाव है, जो परस्पर सहयोग, समर्पण और उचित कर्तव्यपालन से स्थापित होता है। स्नान, पान और वाक्यदान जैसी साधारण परंतु प्रभावी क्रियाएं ज्ञाता को पण्डित बनाती हैं, जो दर्शाती हैं कि ज्ञान केवल वैचारिक नहीं, बल्कि व्यवहारिक और सामाजिक होता है।
प्रश्न उठता है कि क्या केवल स्वभाव से ही तुष्ट होना संभव है? क्या बाहरी साधन जैसे सम्मान, वस्त्र, धन आदि की आवश्यकता नहीं? इस पर विचार करते हुए पता चलता है कि स्वभाव से संतोष वह स्थायी आनंद है, जो नित्य बाहरी वस्तुओं की निर्भरता से ऊपर है। इसी स्थिरता में समाज का सामंजस्य और व्यक्ति का आंतरिक संतुलन निहित है।
अतः, इस स्थिति में ज्ञान, व्यवहार और संस्कारों का सामंजस्य ही पूर्ण मनुष्यत्व का आधार है। यह सूक्ष्म सिद्धांत बताता है कि व्यवहारिक संस्कृति, सामाजिक विनय और आचार-संस्कार से ही ज्ञाता और पण्डित की पहचान होती है। वाक्यदान की महत्ता इस बात में है कि शब्द केवल संवाद नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, शिक्षा और धर्म का वाहक भी हैं।