तथापि सुधियश्चार्या सुविचार्यैव कुर्वते ॥ ॥१३-१८॥
जीवन में फल की प्राप्ति कर्म पर आधारित होती है, यह स्पष्ट और निर्विवाद सिद्धांत है। परंतु यह सत्य होते हुए भी केवल इस धारणा पर टिक जाना बुद्धिमानी नहीं है कि 'कर्म करो, फल अपने आप मिलेगा।' बुद्धिमत्ता वहीं से आरंभ होती है जहाँ व्यक्ति केवल कर्म करने की प्रवृत्ति से आगे बढ़कर, उस कर्म की प्रकृति, उसकी दिशा, उसके परिणाम और उसकी नैतिकता पर सूक्ष्म विचार करता है। यह विवेक ही मनुष्य को यंत्रवत कर्म से बचाकर उसे सर्जक, विवेचक और दार्शनिक बनाता है।
‘बुद्धिः कर्मानुसारिणी’ — बुद्धि भी कर्म के पीछे चलती है, यह वाक्य अपने भीतर गहन चेतावनी समेटे हुए है। यदि बुद्धि केवल कर्म के परिणामों के पीछे-पीछे चलेगी, तो वह कभी भी स्वतंत्र और नैतिक निर्णय नहीं ले पाएगी। बुद्धि को कर्म की पूर्वप्रेरणा बनना चाहिए, न कि मात्र अनुसरणकर्ता। यदि किसी का कर्म अंध-आंदोलन से प्रेरित है और बुद्धि उसी के पीछे चल रही है, तो वह व्यक्ति केवल प्रतिक्रियाशील जीवन जियेगा, निर्णयक्षम नहीं बनेगा।
यही कारण है कि 'सुधियः' — अर्थात विवेकी, ज्ञानी, प्रबुद्ध व्यक्ति — किसी भी कार्य को करने से पहले उसे गंभीरता से, अनेक दृष्टिकोणों से, और दीर्घकालिक परिणामों की संभावनाओं के साथ देखकर ही निर्णय लेते हैं। यह निर्णय प्रक्रिया ही उन्हें सामान्य जन से अलग करती है। जहाँ साधारण व्यक्ति अवसर आने पर प्रतिक्रिया देता है, वहाँ सुधि व्यक्ति अवसर को बनाता है, और उसे दिशा देता है।
‘सुविचार्यैव’ — अर्थात केवल विचार नहीं, बल्कि ‘सुविचार’, यानी गहरे, तटस्थ और नैतिक विवेक से प्रेरित विचार। यह विवेक ही व्यक्ति को भीड़ से अलग करता है। बिना सुविचार के किया गया कर्म, चाहे वह कितना भी परिश्रमपूर्ण हो, विनाश का कारण बन सकता है। यदि बुद्धि कर्म से पहले न हो और केवल फल की प्रतीक्षा करे, तो वह उद्देश्यविहीन बन जाती है।
विवेकशीलता का यह मापदंड न केवल व्यक्तिगत जीवन में लागू होता है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचनाओं में भी इसकी अपरिहार्यता है। एक शासक यदि बिना विचार के केवल परिस्थितियों की प्रतिक्रिया में कार्य करे, तो वह नीति नहीं, केवल प्रबंधन करता है। एक साधक यदि बिना अंतरदृष्टि के केवल अभ्यास करे, तो वह साधना नहीं, यांत्रिकता है।
यह विचार मनुष्य को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर, कर्मप्रधानता से विवेकप्रधानता की ओर ले जाता है। अंततः, यही दृष्टिकोण मनुष्य को जीवन की सीमाओं के परे विचारशीलता, उत्तरदायित्व और नैतिक उदात्तता के शिखर पर पहुँचाता है।