तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ॥१३-१७॥
शिक्षा केवल सूचना के आदान-प्रदान का माध्यम नहीं, बल्कि एक जीवंत संबंध है जो गुरु और शिष्य के बीच की आस्था, सेवा, और समर्पण पर आधारित होता है। गुरु वह स्रोत है, जिसमें विद्या गहराई से समाहित होती है, और शिष्य वह पात्र है, जो उस जल को प्राप्त करना चाहता है। लेकिन यह जल सतह पर नहीं होता; उसे पाने के लिए भूमि को खोदना पड़ता है — ठीक उसी प्रकार जैसे शिष्य को विनम्रता, सेवा, और श्रवण के औजारों से ज्ञान की गहराई तक पहुँचना पड़ता है।
इस प्रक्रिया में गुरुगति विद्या का सहज हस्तांतरण तभी संभव होता है जब शिष्य केवल सीखने की जिज्ञासा न रखे, बल्कि गुरु के प्रति समर्पण और सेवा की भावना से पूर्ण हो। जो केवल उत्तर पाने की लालसा रखता है, वह केवल सतही जानकारी तक सीमित रहेगा; जबकि जो गुरु की आज्ञा, समय और आदर्शों के प्रति पूर्ण समर्पण रखता है, वही उस आंतरिक ऊर्जा — उस ज्ञान — को प्राप्त करता है जो जीवन को दिशा देता है।
इस सेवा की भावना कोई दासत्व नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण साधना है — यह वह अनुशासन है जो अहंकार को भेदता है और पात्रता को प्रकट करता है। गुरु के साथ यह संबंध केवल औपचारिक न होकर आंतरिक रूप से जुड़ा हुआ होता है, जहाँ शिष्य अपने चित्त को निर्मल कर विद्या को आत्मसात करने के योग्य बनाता है।
आज की औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में जहाँ संबंध यंत्रवत् हो गए हैं, वहाँ इस सूत्र की प्रासंगिकता और भी अधिक है। शिक्षक को केवल सूचना देनेवाला नहीं, बल्कि चित्त को उन्नत करनेवाला मार्गदर्शक मानना आवश्यक है। जब तक शिष्य स्वयं को गुरु के अधीन नहीं करता, और जब तक वह सेवा के भाव से नहीं जुड़ता, तब तक ज्ञान केवल सतही रहेगा — उसका वास्तविक स्वरूप अज्ञात ही रह जाएगा।
यह प्रक्रिया गुरुकुलों के उस प्राचीन संस्कार को स्मरण कराती है जहाँ सेवा और अनुशासन को विद्या प्राप्ति की अनिवार्य शर्त माना जाता था। जल की खोज जैसे परिश्रम और धैर्य की मांग करती है, वैसे ही विद्या की खोज भी तप और विनय की अपेक्षा रखती है। केवल वही शिष्य वास्तविक विद्या प्राप्त करता है, जो गुरु की सेवा को ज्ञानार्जन का प्रथम चरण मानता है।