श्लोक १३-१५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम् ।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ ॥१३-१५॥
जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़ा अपनी माँ के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार किया गया कर्म अपने कर्ता के पास पहुँचता है।

कर्म की गति न तो मन्द है, न ही भूल जाने योग्य। यह एक ऐसी अपरिहार्य प्रक्रिया है जो न तो स्थान से प्रभावित होती है, न समय से, न व्यक्ति की इच्छा से। यह सिद्धांत केवल धार्मिक अवधारणाओं में सीमित नहीं, बल्कि व्यवहारिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी सर्वथा प्रकट होता है।

प्रश्न यह नहीं है कि क्या कर्म फल देगा—प्रश्न यह है कि कब और कैसे देगा। बछड़ा यदि हजारों गायों में अपनी माँ को पहचान लेता है, तो यह केवल उसकी सूक्ष्म अनुभूति का नहीं, उसकी आंतरिक आवश्यकता का प्रमाण है। उसी प्रकार, किया गया कोई भी कर्म अपने कर्ता को ढूँढ़ ही लेता है—चाहे वह कर्म छिपा हुआ हो, अनाम हो, या भुला दिया गया हो।

कई बार व्यक्ति सोचता है कि यदि उसका कर्म गुप्त है, तो फल से भी वह बच सकता है। लेकिन क्या प्रकृति को छलना संभव है? क्या मनुष्य अपने ही बीते हुए कर्मों की छाया से मुक्त हो सकता है? कर्म एक बीज है—जिसे भूमि, वर्षा, और समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती—वह स्वयं अपना वातावरण रच लेता है, और जब उचित क्षण आता है, तो फल देने से पीछे नहीं हटता।

कर्मफल का यह सिद्धांत एक सार्वभौमिक उत्तरदायित्व को जन्म देता है। जब मनुष्य यह समझ लेता है कि कोई भी कर्म — चाहे वह विचार में हो, वाणी में हो, या शरीर से — उसकी आत्मा से अलग नहीं होता, तब वह अपने प्रत्येक कार्य को एक गहन उत्तरदायित्व के साथ करने लगता है।

यह धारणा उन लोगों के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है जो सार्वजनिक जीवन, राजनीति, न्याय या नेतृत्व के क्षेत्र में हैं। उनके प्रत्येक निर्णय, प्रत्येक कार्य, दूरगामी प्रभाव उत्पन्न करते हैं। और वे कर्म, चाहे भुला दिए जाएँ, वे कर्म, चाहे दबा दिए जाएँ — वे समय के गर्भ में फलते हैं और ठीक उसी व्यक्ति को लौटते हैं जिसने उन्हें जन्म दिया।

कर्मफल का दर्शन न केवल दंड का संकेत है, बल्कि यह चेतना का एक रूपांतरण भी है। यदि व्यक्ति अपने कर्मों की संभावित परिणतियों को लेकर सजग हो जाए, तो वह न केवल बाह्य स्तर पर सतर्कता अपनाता है, बल्कि उसकी आंतरिक संरचना—विवेक, नैतिकता और आत्मदृष्टि—भी परिष्कृत होती है।

इस सिद्धांत को समझे बिना कोई भी नैतिक जीवन जी ही नहीं सकता। क्योंकि जब तक मनुष्य यह मानता है कि वह अपने कर्मों से बच सकता है, तब तक वह उनके लिए उत्तरदायी नहीं बनता। लेकिन जब वह यह जान जाता है कि हर कर्म एक चिह्न छोड़ता है—एक स्मृति, एक प्रभाव—और वह अनिवार्यतः लौटेगा, तब उसका जीवन केवल कर्म नहीं, उत्तरदायित्व से पूरित कर्म बनता है।