श्लोक १३-१४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम् ।
दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात्सन्तोषमाश्रयेत् ॥ ॥१३-१४॥
मन की सभी इच्छाएँ किसको पूर्ण रूप से सुख देनेवाली सिद्ध होती हैं? क्योंकि सब कुछ भाग्य पर निर्भर है, इसलिए संतोष का आश्रय लेना चाहिए।

मनुष्य की इच्छाएँ अनंत हैं — एक पूर्ण होती है, तो दूसरी जन्म लेती है। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह जिस वस्तु को पाता है, उससे तृप्त नहीं होता; बल्कि जो नहीं मिला, उसी की चिंता करता रहता है। यह मानसिक प्रवृत्ति व्यक्ति को लगातार असंतोष की स्थिति में रखती है, चाहे उसके पास कितना भी भौतिक सुख क्यों न हो। प्रश्न यह नहीं है कि कौन क्या चाहता है, बल्कि यह है कि कौन है जिसे वह सब कुछ प्राप्त हो जाता है, जो वह चाहता है — और वह भी बिना अपूर्णता या दुःख के?

चेतना की इस अस्थिरता को स्थिर करने के लिए केवल एक उपाय है — संतोष। संतोष वह मानसिक स्थिति है जो बाहरी परिस्थितियों से स्वतंत्र होती है। यह निर्णय की बात नहीं, बल्कि अभ्यास और दृष्टिकोण का विषय है। जो यह मान लेता है कि जीवन की सारी घटनाएँ, उपलब्धियाँ, हानि-लाभ, प्रयत्न और परिणाम — सब कुछ किसी न किसी रूप में दैव या समय के अधीन हैं, वही वास्तविक संतुलन पा सकता है।

दैव का आशय यहाँ केवल धार्मिक भाग्यवाद नहीं है, बल्कि उस गूढ़, अप्रत्याशित व्यवस्था से है जो मनुष्य के प्रयासों के परिणाम को निश्चित नहीं रहने देती। एक ही प्रयास दो व्यक्तियों के लिए अलग-अलग फल देता है। कोई मेहनत कर के भी विफल हो जाता है, और कोई अल्प प्रयास से भी सफल हो जाता है। यह भेद स्पष्ट करता है कि केवल पुरुषार्थ ही नियंता नहीं है; कुछ ऐसा भी है जो हमारे प्रयासों से परे है — वही दैव है।

इस अस्थिरता और अनिश्चितता के बीच, यदि कोई व्यक्ति सुख की खोज को बाहरी वस्तुओं में करेगा, तो उसे निरंतर निराशा ही हाथ लगेगी। मन की तृप्ति भोगों से नहीं, दृष्टिकोण के परिवर्तन से आती है। संतोष, उस परिपक्वता की स्थिति है जहाँ मन अब यह शर्त नहीं रखता कि 'फल मिलेगा तो ही प्रसन्न रहूँगा'। वह अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं करता, बल्कि प्रतिकूलता में भी शांति और संतुलन बनाए रखता है।

संतोष एक प्रकार की आंतरिक शक्ति है, जो व्यक्ति को दुख की परछाइयों से भी अप्रभावित बनाए रखती है। यह न तो अकर्मण्यता है, न ही इच्छाओं की हत्या — यह तो बोध है कि सब कुछ नियंत्रित नहीं किया जा सकता, और न ही सब कुछ हमारे वश में है। यह बोध, व्यक्ति को लोभ, द्वेष, प्रतिस्पर्धा और क्षोभ से मुक्त करता है।

जिसने संतोष का आश्रय लिया, वह किसी भी परिस्थिति में स्थिर और आत्मिक रूप से समृद्ध रहता है। उसे सफलता या असफलता का भय नहीं सताता, और न ही भविष्य की अनिश्चितता उसका चैन छीन पाती है। वह जानता है कि जो उसके भाग्य में है, वह समय पर मिलेगा — और जो नहीं है, उसकी चिंता व्यर्थ है। यही संतोष की परिणति है: आत्मबल, शांतिपूर्ण जीवन और सच्चा सुख।