अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते ॥१३-११॥
यह विचार मानवीय स्वभाव की एक गहरी सच्चाई को उद्घाटित करता है, जहाँ अत्यधिक दबाव या संकट में कमजोर और नीच लोग स्वयं की स्थिति का सामना नहीं कर पाते। 'सुतीव्रेण परयशोऽग्निना दह्यमानाः' का अर्थ है कि अत्यंत तीव्र और प्रबल अग्नि से जलाए जा रहे व्यक्ति या समाज के घटक, जो अक्सर आघात और अत्याचार के शिकार होते हैं। ऐसी स्थिति में वे स्वयं को उस कष्टदायक स्थान या स्थिति से बाहर निकालने में असमर्थ रहते हैं।
यहाँ 'अशक्ताः तत्पदं गन्तुम्' उनकी कमजोरी को दर्शाता है, अर्थात वे उस उच्च स्थिति, मुक्ति या सुरक्षा के स्तर तक पहुँच नहीं पाते जो उन्हें राहत दे सके। इसके परिणामस्वरूप, वे अपने कष्टों और अपमानों के लिए दूसरों की निंदा या आलोचना करते हैं। यह व्यवहार मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से समझा जा सकता है।
निंदा का यह स्वरूप एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया है, जहाँ पीड़ित स्वयं की असमर्थता और दुर्बलता को स्वीकार करने की बजाय बाहरी परिस्थितियों या व्यक्तियों पर दोष मढ़ता है। यह दोषारोपण और निंदा उन आंतरिक भय और आत्म-सम्मान की कमी से उत्पन्न होती है जो उनके भीतर पनपती हैं।
यह स्थिति सामाजिक व्यवस्था, न्याय, और नैतिकता के संदर्भ में भी चिंतनीय है। कमजोर वर्गों की असमर्थता और अत्याचार के प्रति उनकी प्रतिक्रिया केवल आलोचना तक सीमित रह जाती है, जबकि स्वयं परिवर्तन या सुधार हेतु प्रयास करने में विफल रहती है। यह सामाजिक गतिरोध और द्वेष की स्थिति को जन्म देता है, जो समग्र समाज के विकास और सामंजस्य में बाधा डालती है।
क्या यह स्वभाविक मनोवैज्ञानिक संरक्षण तंत्र है या सामाजिक दबाव का परिणाम? क्या असहायता के अंधकार में निंदा का उद्भव आत्म-सम्मान की रक्षा का प्रयास है? यह सवाल मनुष्य के भीतर संघर्ष और संरक्षण के द्वन्द्व को उजागर करता है।
परंतु, इस स्थिति से उबरने का मार्ग केवल बाहरी निंदा से नहीं, बल्कि आंतरिक आत्मावलोकन, शक्ति-संचय और सक्रिय परिवर्तन में निहित है। कमजोरों को अपनी स्थिति स्वीकार करके उसकी पराजय के बजाय, उससे बाहर निकलने का साहस दिखाना आवश्यक है। केवल निंदा से परिवर्तन संभव नहीं होता; यह केवल स्थिति की जड़ता को बढ़ाता है।
अतः, यह स्थिति चेतावनी देती है कि नकारात्मक परिस्थितियों में कमजोर व्यक्ति यदि स्वयं को सशक्त बनाने का प्रयास नहीं करता, तो उसकी निंदा भी उसकी ही कमजोरी का प्रमाण बन जाती है। समाज और व्यक्ति दोनों के लिए यह आवश्यक है कि वे निंदा की प्रवृत्ति को समझें और उसे उत्पन्न करने वाले कारणों का समाधान खोजें।