मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ॥ ॥१३-१२॥
मानव चेतना की समस्त गति मन के अधीन है। मन न केवल विचारों का स्रोत है, बल्कि यह कर्मों का नियामक, वासनाओं का प्रेरक और अंततः बंधन अथवा मुक्ति का हेतु है। जब मन विषयों—रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द—में आसक्त होता है, तब वह बंधन उत्पन्न करता है। विषयों की आकांक्षा अंतहीन होती है; एक इच्छा की पूर्ति दूसरी को जन्म देती है, और यह चक्र व्यक्ति को कभी संतोष नहीं लेने देता।
यह विषयासक्ति धीरे-धीरे मन को बाह्य वस्तुओं में बाँध देती है, जिससे स्वतंत्र निर्णय, गहन विवेक और आत्मबोध क्षीण हो जाते हैं। जैसे कोई पक्षी स्वेच्छा से सुनहरे पिंजरे में प्रवेश कर ले, वैसे ही मन विषयों की मोहकता में उलझ जाता है। इस बंधन में व्यक्ति स्वयं अपने विचारों और वासनाओं का बंधक बनता है, जहाँ उसकी स्वतंत्रता केवल एक भ्रम होती है।
दूसरी ओर, यदि मन को विषयों से हटाकर अंतर्मुख किया जाए—जहाँ न राग है, न द्वेष; न लालसा है, न भय—तो वही मन मुक्ति का द्वार बन जाता है। निर्विषय मन का अर्थ निष्क्रिय या निर्जीव मन नहीं, बल्कि वह सजग चित्त है जो विषयों के आकर्षण से परे रहकर चेतना की उच्चतर अवस्थाओं में स्थित होता है। यही मन साधना का साधन बनता है, और यही मोक्ष का कारक।
बन्धन और मोक्ष कोई बाह्य अवस्था नहीं, यह अंतर्जगत की मनोवृत्तियाँ हैं। दो व्यक्ति एक ही भौतिक स्थिति में रह सकते हैं, पर एक मुक्त हो सकता है और दूसरा बंधन में, केवल इसलिए कि उनके मन की वृत्तियाँ भिन्न हैं। मन के स्वरूप और उसकी प्रवृत्तियों को समझे बिना कोई भी आत्मिक उन्नति संभव नहीं।
यह शिक्षा मात्र साधु-संन्यासियों के लिए नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए है जो भीतर स्वतंत्रता चाहता है। जब तक मन विषयों का सेवक बना रहेगा, तब तक वह पराधीन रहेगा। किंतु जब वह विषयों से ऊपर उठकर आत्मनिरीक्षण, विवेक और संयम की ओर अग्रसर होता है, तभी वह स्वाधीन हो पाता है।
मन के द्वार पर यदि विवेक प्रहरी बनकर खड़ा हो जाए, तो वह न तो विषयों से बंधेगा, न उनसे पलायन करेगा—बल्कि उन्हें यथासमय साधन की भाँति प्रयोग करेगा। यही वह स्थिति है जहाँ मन बंधन नहीं, बल्कि मोक्ष का सेतु बनता है।