श्लोक १३-०१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
मुहूर्तमपि जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा ।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना ॥ ॥१३-०१॥
कोई मनुष्य एक क्षण भी शुद्ध और सद्कर्म द्वारा जीवित रहे, परन्तु वह कठिन और विरोधी कर्म से कभी भी कल्पित नहीं हो सकता।

जीवन का मूल आधार कर्म है, परंतु कर्मों का प्रकार अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। शुद्ध, सदाचारी और धर्मयुक्त कर्म से जीवन का कोई क्षण भी मूल्यवान होता है, क्योंकि यह कर्म न केवल व्यक्ति को बल्कि समस्त लोकों को लाभान्वित करता है। 'शुक्लेन कर्मणा' का अर्थ है कि जब कर्म निर्मल, स्वच्छ और सकारात्मक होते हैं, तब वे जीवन को स्थिरता और अर्थपूर्णता प्रदान करते हैं।

इसके विपरीत, कठिन, कष्टप्रद और लोकद्वय विरोधी कर्म—जो समाज के हित में नहीं होते, जो लोकों के बीच संघर्ष, कलह, और विघटन उत्पन्न करते हैं—से जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां 'लोकद्वय' का तात्पर्य द्विपक्षीय समाज से है, जैसे राजा-प्रजा, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी आदि। यदि कर्म इनके विरोधी हों, तो न केवल व्यक्ति बल्कि समाज का भी पतन निश्चित है।

यह विचार अत्यंत गंभीर है कि व्यक्ति की जीवित रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती यदि उसके कर्म समाज और लोकधर्म के अनुरूप न हों। केवल शरीर की भौतिक उपस्थिति से जीवन नहीं माना जा सकता; जीवन का सार कर्मों की शुद्धता और समाज के प्रति समर्पण में निहित है। इस प्रकार, जीवन के लिए आवश्यक है कि कर्म सद्भाव, न्याय और लोकहित में हों।

व्यक्ति और समाज के बीच समरसता के बिना जीवन का अस्तित्व असंभव है। असंतुलित और विरोधी कर्म से न केवल व्यक्ति का जीवन क्षीण होता है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था भी अव्यवस्थित हो जाती है। जीवन का मूल्य तभी स्थिर रहता है जब कर्म दोनों लोकों के हित में हों, न कि उनके विरोध में।

इसलिए, जीवन को बनाए रखना केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उच्चतर मूल्यवान कर्मों और लोकहितकारी क्रियाओं से जुड़ा होता है। कठिन और हानिकारक कर्म से जीवित रहना कल्पनातीत है, क्योंकि वे जीवन के आधार को नष्ट कर देते हैं। यह मनुष्य को सदैव यह सोचने पर मजबूर करता है कि उसका कर्म क्या है, और क्या वह वास्तव में जीवन का सार समझता है।

अंततः, जीवन की गहराई और अर्थ कर्मों की शुद्धता और लोकधर्म के साथ सामंजस्य में निहित है। जो कर्म लोकों के विरोधी होते हैं, वे न केवल व्यक्ति का नाश करते हैं बल्कि सामाजिक और नैतिक तंत्र को भी विकृत कर देते हैं।