श्लोक १२-०९

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
विप्रास्मिन्नगरे महान्कथय कस्तालद्रुमाणां गणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातर्गृहीत्वा निशि ।
को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोऽपि दक्षो जनः
कस्माज्जीवसि हे सखे विषकृमिन्यायेन जीवाम्यहम् ॥ ॥१२-०९॥
बताओ, इस नगर में कौन महान ब्राह्मण है? ताड़ के वृक्षों का समूह किस कार्य में उपयोगी है? कौन दानी है? धोबी जो सुबह वस्त्र लेकर रात्रि में लौटाता है। कौन कुशल है? पराई संपत्ति और स्त्री को हरण करने में तो सभी कुशल हैं। हे मित्र, तुम किस कारण जीवित हो? मैं तो विष कीड़े की तरह जीवित हूँ।

जब समाज में नैतिक पतन गहराने लगता है, तो मूल्य और गुण उपहास का विषय बन जाते हैं। जो वास्तविक रूप से महान हैं, उनकी महत्ता छिप जाती है, और जो केवल बाह्य आडंबर से प्रतिष्ठित हैं, वे पूजनीय हो जाते हैं। ऐसे समय में, ब्राह्मण जैसे उच्च आदर्श वाले व्यक्तित्वों की वास्तविक पहचान लुप्त हो जाती है। जो केवल यज्ञोपवीत या जन्म से ब्राह्मण हैं, लेकिन आचरण से नहीं — वे समाज में श्रेष्ठ माने जाने लगते हैं।

वही स्थिति दान और दक्षता की अवधारणाओं के साथ भी होती है। एक सच्चा दानी बिना अपेक्षा के देता है, परन्तु जब धोबी जैसे लोग, जो सुबह कपड़े लेकर रात में लौटाते हैं, 'दाता' कहलाने लगते हैं, तो यह समाज के मूल्य-संकट का स्पष्ट प्रमाण है। दक्षता और कौशल का मापदंड भी भ्रष्ट हो जाता है — अब जो जितना अधिक धोखा दे सके, चोरी कर सके, या दूसरों की संपत्ति और स्त्री पर अधिकार कर सके, वह 'चतुर' और 'सफल' कहा जाता है।

यह विडंबना केवल समाज के खोखलेपन को ही नहीं दिखाती, बल्कि उसमें जी रहे सज्जनों की पीड़ा भी उद्घाटित करती है। जब संपूर्ण समाज का व्यवहार इस हद तक गिर जाए कि अधर्म, छल, और अनैतिकता सामान्य व्यवहार बन जाए, तो एक ईमानदार व्यक्ति के लिए जीवित रहना भी एक पीड़ा बन जाता है। ऐसे वातावरण में वह केवल 'विषकृमि' — एक विषैली परिस्थिति में पलनेवाले कीट — की भाँति जीता है, न स्वयं के लिए, न किसी आशा के लिए, बल्कि केवल परिस्थितियों की विषाक्तता में जीवित रहने की विवशता में।

यह प्रश्न भी उठता है — ऐसे समाज में जीने का औचित्य क्या है? जब नैतिकता उपहास का विषय हो, और सफलता का मापदंड अनाचार बन जाए, तब सज्जनों के लिए जीवन केवल सहन करने का नाम रह जाता है। यह केवल व्यंग्य नहीं, एक तीव्र सामाजिक आलोचना है — वह व्यक्ति जो अपनी अंतःकरण की आवाज़ से समझौता नहीं करता, वह समाज के बहाव में बहने के बजाय उसमें फंसा रह जाता है। उसकी स्थिति उसी विषकृमि की भाँति है जो न तो उस विष को पी सकता है, न छोड़ सकता है।

यह दृष्टिकोण केवल निराशा का चित्र नहीं खींचता, बल्कि एक चुनौती प्रस्तुत करता है — क्या हम उस अवस्था को स्वीकार करेंगे जहाँ गुणहीनता ही समाज का चेहरा बन जाए? या हम विवेक, नैतिकता, और सच्चे मूल्य के पुनर्स्थापन के लिए प्रयत्नशील होंगे? यह चेतावनी है कि यदि सामाजिक चेतना नहीं जागी, तो विषकृमियों का जीवन ही सामान्य मानव जीवन बन जाएगा।