श्लोक १२-०८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः ।
कालेन फलते तीर्थं सद्यः साधुसमागमः ॥ ॥१२॥
साधुओं का दर्शन पुण्यदायक है, क्योंकि वे स्वयं तीर्थस्वरूप होते हैं। तीर्थ स्थान समय के साथ फल देता है, किंतु साधु का संग तुरंत फलदायक होता है।

तीर्थयात्रा का उद्देश्य केवल स्थान विशेष पर जाना नहीं, बल्कि उस स्थल के माध्यम से आत्मिक शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना होता है। किंतु जब व्यक्ति किसी सच्चे साधु से प्रत्यक्ष रूप में मिलता है, तो वह आत्मिक ऊर्जा और ज्ञान का सजीव स्रोत बन जाता है। यह अनुभव मात्र दर्शनीय स्थल या पूजा की क्रिया भर नहीं होता, बल्कि एक जीवंत जागरण की प्रक्रिया होती है। साधु न केवल स्वयं तीर्थ होते हैं, बल्कि वे चलते-फिरते जागृत तीर्थ होते हैं, जो अपने आसपास के लोकों को भी प्रभावित करते हैं।

जब कोई व्यक्ति तीर्थयात्रा करता है, तो वहाँ पहुँचने, विधिपूर्वक कर्मकाण्ड करने और फिर समय के साथ उसके फल की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता होती है। यह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है — तप, व्रत, अनुशासन और प्रतीक्षा की मांग करती है। परंतु यदि वही पुण्य और प्रभाव किसी जीवित साधु के दर्शन से तुरंत मिल जाए, तो यह समझना आवश्यक हो जाता है कि तीर्थ की सार्थकता व्यक्ति में निहित है, स्थान में नहीं। साधु में समस्त गुण और ऊर्जा समाहित होती है, जो तीर्थ को तीर्थ बनाते हैं।

वास्तव में, तीर्थ वह स्थान है जहाँ चित्त निर्मल होता है, अहंकार शिथिल होता है और आत्मा गहराई में प्रवेश करती है। जब कोई साधु — जिसने अहंकार से ऊपर उठकर, विषयवासनाओं को नियंत्रित कर, तप और ध्यान द्वारा चित्त को परिशुद्ध किया हो — हमारे समक्ष आता है, तो उसकी उपस्थिति स्वयं एक स्थायी और प्रभावी तीर्थ बन जाती है। वह स्पर्श मात्र से, दृष्टि मात्र से, शब्द मात्र से हमारे भीतरी संसार को झकझोर सकता है।

साधु का संग केवल आस्थावान जनों के लिए नहीं, अपितु संशयग्रस्त, भटके हुए और अधार्मिक जनों के लिए भी उतना ही प्रभावशाली होता है। जैसे तेज अग्नि में प्रवेश करते ही वस्तु जलने लगती है, वैसे ही सच्चे साधु के प्रभाव में प्रवेश करते ही चित्त की जड़ता पिघलने लगती है। यह संग एक ऐसी अलौकिक ऊर्जा का संचार करता है जो न तर्क से बंधी होती है, न अनुष्ठानों से।

यह तात्त्विक भेद अत्यंत महत्वपूर्ण है: तीर्थ स्थान स्थूल है, उसका अनुभव विलंबित है; पर साधु चेतन है, उसका प्रभाव तात्कालिक और गहन होता है। साधु का संग केवल पुण्य नहीं देता, बल्कि भीतर की चैतन्य वृत्तियों को जागृत करता है। वह आत्मस्मरण का कारण बनता है, जो किसी भी बाह्य तीर्थ से अधिक मूल्यवान है।

इसलिए यदि किसी को अवसर मिले कि वह किसी सच्चे साधक या तपस्वी के सान्निध्य में कुछ क्षण बिता सके, तो वह अनुभव किसी दीर्घकालिक धार्मिक यात्रा या यज्ञकर्म से भी अधिक फलदायक हो सकता है। यह प्रश्न तब उठता है: क्या हम तीर्थ में जाना चाहते हैं, या स्वयं तीर्थस्वरूप चेतना के साथ जुड़ना? जो उत्तर इस प्रश्न का है, वही जीवन का मार्गदर्शन बन सकता है।