श्लोक १२-०७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
सत्सङ्गाद्भवति हि साधुना खलानां
साधूनां न हि खलसंगतः खलत्वम् ।
आमोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते
मृद्गन्धं नहि कुसुमानि धारयन्ति ॥ ॥१२-०७॥
सज्जनों के संग से दुष्टों में भी सज्जनता उत्पन्न होती है, परंतु सज्जनों में दुष्टों के संग से दुष्टता नहीं आती। जैसे मिट्टी फूलों की सुगंध को धारण कर लेती है, परंतु फूल मिट्टी की गंध को नहीं अपनाते।

मानव स्वभाव परिवर्तनीय है, और संगति उसका सबसे प्रभावशाली कारक है। किन्तु यह परिवर्तन हर दिशा में समान रूप से नहीं होता। सज्जन व्यक्ति अपने संपर्क में आने वालों पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है, जबकि स्वयं वह दूसरों की दुष्टता से प्रभावित नहीं होता। दुष्ट व्यक्ति यदि किसी सच्चरित्र पुरुष की संगति में आता है, तो उसमें भी सुधार की संभावना होती है। यह परिवर्तन सरल नहीं, परंतु संभव है — जैसे एक दुर्गंधहीन मिट्टी फूलों के संसर्ग से सुगंधित हो जाती है।

यहां संगति की दिशा महत्वपूर्ण है: सज्जनता एक सक्रिय गुण है जो फैलता है, जबकि दुष्टता निष्क्रिय है यदि वह आत्म-संयम के समक्ष हो। यही कारण है कि सच्चे सत्पुरुष केवल अपने लिए नहीं, अपितु समाज के लिए भी आश्रय और शुद्धिकरण का माध्यम बनते हैं। वे दुष्टों को उपेक्षा नहीं, बल्कि सुधार की दृष्टि से देखते हैं, और उनके संपर्क मात्र से ही अनेक बार परिवर्तन संभव होता है।

सज्जनता एक सुवास है — अदृश्य, पर प्रभावी; जो न केवल स्वयं को पुष्पवत पवित्र रखती है, बल्कि जिस वस्तु से भी उसका संपर्क होता है, उसमें भी सार्थक बदलाव ला सकती है। दूसरी ओर, सच्चे सज्जन मिट्टी के समान हैं — वे दूसरों की सुगंध को आत्मसात कर लेते हैं, पर अपनी मौलिकता में कोई विकृति नहीं आने देते।

यह विवेक और आत्मबल का प्रश्न है। सज्जन वही है जो केवल बाह्य आचरण से नहीं, बल्कि अंतःकरण की दृढ़ता और आत्मशक्ति से निर्मित होता है। वह बाहरी विकृतियों के संपर्क में आकर भी अंदर से अडिग रहता है, ठीक वैसे ही जैसे एक कमल दलदल में खिलता है, पर कभी उसका अंश नहीं बनता।

दुष्ट व्यक्ति यदि सच्चे सज्जनों की संगति में सुधारता है, तो यह सामाजिक आशा का संकेत है — एक प्रकार की पुनःस्थापना की प्रक्रिया। इसका अर्थ यह नहीं कि सज्जनता को दुष्टता से सदा डरना चाहिए या उससे बचना चाहिए, बल्कि सज्जनता में इतना आत्मबल होना चाहिए कि वह भ्रष्ट प्रभावों को आत्मसात किए बिना उन्हें परिवर्तित कर सके।

इस सिद्धांत से यह भी स्पष्ट होता है कि केवल वातावरण को दोष देना पर्याप्त नहीं; व्यक्ति के अपने गुण और आत्मसंयम यह तय करते हैं कि संगति उसे प्रभावित करेगी या नहीं। सज्जन की संगति में यदि कोई खल व्यक्ति सुधरता है, तो यह सज्जनता की सफलता है; किंतु यदि सज्जन स्वयं खलता से विचलित हो जाए, तो वह सज्जनता का अधूरा रूप है।