नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् ।
वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः ॥ १२-०६॥
प्रकृति और उसके नियमों में दोष या दोषारोपण की कल्पना स्वयं में निरर्थक है। करील वृक्ष के पत्ते न होना, वसंत ऋतु में दोष नहीं है, क्योंकि वह वृक्ष की प्रकृति और ऋतु के अनुकूल होता है। इसी प्रकार सूर्य का दिन में दोषरहित होना स्वाभाविक है; उसकी पूर्णता और प्रभावशीलता में कोई कमी नहीं। चातक पक्षी के मुख पर वर्षा न पड़ना भी स्वाभाविक है, क्योंकि यह पक्षी मेघों के आने का संकेत देता है, और वर्षा का असमय न होना पक्षी का दोष नहीं।
यह उपमा यह स्पष्ट करती है कि बाहरी घटनाओं में दोष का अन्वय या दोषारोपण केवल उस दृष्टिकोण से होता है, जो स्वाभाविक नियमों को न समझे। वस्तुतः प्रत्येक तत्व अपने निर्धारित नियमानुसार कार्य करता है और उसमें दोष की कल्पना केवल मानव की अवगुणों, दोषपूर्ण दृष्टिकोण या अज्ञानता का परिणाम हो सकती है।
अतः, जो पहले से नियत और अवश्यंभावी नियति या विधि से लिखा गया है—जैसे किसी व्यक्ति के मस्तक पर पूर्व जन्मों के कर्मों का अंकन—उसको मिटाना असंभव है। यह कर्मफल और नियति की अपरिवर्तनीयता की ओर इंगित करता है, जो मनुष्य के प्रयास से परे है।
इस प्रकार, दोषारोपण का तर्क तभी मान्य होता है जब वह मनुष्य के नियंत्रण में हो, न कि स्वाभाविक नियमों या नियति पर। दोष की परिभाषा स्वयं कर्म, नियम, और नियति के अनुसार निर्धारित होती है। किसी भी प्राकृतिक या नियत घटना में दोष की खोज करना वैसा ही है जैसे सूर्य के प्रकाश में दोष की खोज करना।
यह विचार मानवीय स्वभाव और न्याय की अवधारणा पर भी प्रश्न उठाता है—क्या दोष का मूल्यांकन परिस्थिति, समय, और नियत नियमों के अनुरूप होना चाहिए? क्या दोष एक स्वाभाविक घटक है, या वह केवल मनुष्य के नजरिए से उत्पन्न होता है? यह प्रश्न चेतना की सीमा और न्याय की सापेक्षता को उद्घाटित करते हैं।