श्लोक १२-०५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
येषां श्रीमद्यशोदासुतपदकमले नास्ति भक्तिर्नराणां
येषामाभीरकन्याप्रियगुणकथने नानुरक्ता रसज्ञा ।
येषां श्रीकृष्णलीलाललितरसकथासादरौ नैव कर्णौ
धिक् तान् धिक् तान् धिगेतान् कथयति सततं कीर्तनस्थो मृदंगः ॥ ॥१२॥
जिन लोगों के हृदय में श्रीमद् यशोदासुत के चरणकमल के प्रति श्रद्धा नहीं है,
जिनमें अभीर कन्या की प्रिय गुणों की चर्चा में रसज्ञ होकर प्रेम नहीं है,
जिनके कान श्रीकृष्ण की लीलाओं तथा लालित रस से भरपूर कथाओं को सुनने में रुचि नहीं रखते,
ऐसे लोगों के लिए कीर्तनस्थ मृदंग निरंतर 'धिक् तान् धिक् तान् धिगेतान्' कहकर अभिशाप की तरह ही होता है।

श्रद्धा और रसभाव का अभाव जीवन को अधूरा बनाता है, विशेषतः आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों में। श्रीमद् यशोदासुत के चरणकमल में श्रद्धा न होने का अर्थ है उस दिव्य प्रेम और भक्ति की अनुभूति से दूर रहना जो जीवन को अर्थवान बनाती है। यहाँ यशोदासुत से तात्पर्य भगवान् कृष्ण से है, जिनका प्रेम और भक्ति जीवन में उच्चतम आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करती है।

अभीर कन्या के प्रिय गुणों की चर्चा में रसज्ञता और अनुराग न होना मनुष्य की संवेदनशीलता और सौंदर्यबोध की कमी दर्शाता है। गुणों की प्रशंसा और उनकी अनुभूति से मन और हृदय को आनंद और शांति मिलती है, जो बिना रसज्ञान के संभव नहीं। यह प्रेम, केवल बाहरी नहीं, आंतरिक संवेदना का प्रतीक है, जो जीवन में सौंदर्य और भक्ति की गहराई लाती है।

कान का श्रीकृष्ण की लीलाओं और लालित रसयुक्त कथाओं को न सुनना या उसमें रस न लेना, व्यक्ति को आध्यात्मिक अंधकार और जीवन की गहनता से वंचित करता है। लीलाओं का श्रवण और अनुभव भावनात्मक और बौद्धिक दोनों स्तरों पर जागरूकता और आनंद प्रदान करता है। ऐसे श्रोता, जो इस आनंद को ग्रहण नहीं कर पाते, उनके लिए मृदंग की ध्वनि केवल अभिशाप और व्यर्थ की आवाज के समान होती है।

मृदंग, जो कि कीर्तन का सार है, यदि वह श्रद्धा और रस के बिना सुनाया जाए तो वह निरर्थक और कष्टदायक बन जाता है। 'धिक् तान् धिक् तान् धिगेतान्' की पुनरावृत्ति अभिशाप की तरह सुनाई देती है, जो उस व्यक्ति के लिए मन और हृदय के द्वार बंद कर देती है। यह उस आध्यात्मिक सूखे और सांसारिक बंधनों की चेतावनी है, जहाँ भक्ति और रस की कमी जीवन को निर्जीव और निर्बल बना देती है।

अतः, भक्ति, प्रेम और रस की अनुभूति जीवन के मूल तत्व हैं जो आध्यात्मिकता को जीवंत करते हैं। इनके बिना, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आयोजनों का स्वरूप केवल ध्वनि मात्र रह जाता है, जो किसी के मन को नहीं छू पाता। यह चेतावनी है उन सभी के लिए जो आध्यात्मिकता के मूल रस से विमुख रहते हैं और केवल बाहरी प्रथाओं में लगे रहते हैं।