श्लोक १२-०४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
हस्तौ दानविवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणौ
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ ।
अन्यायार्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्गं शिरो
रे रे जम्बुक मुञ्च मुञ्च सहसा नीचं सुनिन्द्यं वपुः ॥ १२-०४॥
हाथ में दान न देने वाले, केवल श्रुति-पुस्तकों के नाम के अनुयायी, और सारस्वतों (विद्वानों) के विरोधी, जो आंखों में साधु का दर्शन नहीं करते, और जिनके पाद (पैर) तीर्थ स्थल को नहीं गए, वे गलत तरीके से अर्जित धन से भरे पेट और गर्वित उन्नत सिर वाले होते हैं। हे जम्बुक! शीघ्र ही अपने नीच और अपमानजनक शरीर को त्यागो।

दान का परित्याग, केवल पुस्तकों का पठन और विद्वानों का विरोध जीवन के सबसे बुनियादी नैतिक मूल्यों का त्याग है। दान, सामाजिक और धार्मिक दायित्वों का निर्वाह है, जो मनुष्य के भीतर करुणा और सहानुभूति को विकसित करता है। दान से वंचित होना वह है जैसे अपने हाथों को अंधकार में बांध लेना, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को विकृत करता है, बल्कि समाज में अविश्वास और कलह को जन्म देता है।

शास्त्रों का केवल नाममात्र अध्ययन करना और उनके वास्तविक अर्थ तथा प्रभाव को समझे बिना उनके विरुद्ध होना शास्त्रीय ज्ञान का अपमान है। श्रुति-पुस्तकें जीवन के व्यवहार, धर्म और नीति का मार्गदर्शन करती हैं, किन्तु उनका केवल मौखिक या सतही ज्ञान, बिना अभ्यास के, मूर्खता के समान है। इससे बड़ा धोखा और क्या होगा कि वे शास्त्रों के सार को समझे बिना उनका विरोध करते हैं?

सारस्वत (विद्वान) विरोधिता भी घोर अहंकार का परिचायक है। विद्वान समाज के नैतिक और बौद्धिक स्तम्भ होते हैं, उनके बिना ज्ञान की जड़ें कमजोर हो जाती हैं। ऐसे में उनका विरोध करने वाला व्यक्ति अपनी मूर्खता और घमंड के गर्व में ऊँचा सिर उठाता है, जबकि वास्तव में वह नीचता और अपमान का पात्र होता है।

आंखों में साधु का दर्शन न करना, यानी आदर और सम्मान न देना, अपने चरित्र की गिरावट को दर्शाता है। यह न केवल व्यक्तिगत अभिमान का द्योतक है, बल्कि सामाजिक सद्भाव और नैतिकता के पतन का संकेत भी है। तीर्थ यात्रा न करना भी मनुष्य की आध्यात्मिक और नैतिक उपेक्षा का प्रतीक है, जिससे उसका जीवन अधूरा रह जाता है।

गलत तरीके से अर्जित धन और गर्व से ऊँचा सिर मानव के गिरते हुए चरित्र का चित्रण है। धन अधर्म से प्राप्त हो और उसे गर्व का आधार बनाया जाए, तो यह गर्व नहीं, अपितु अभिमान का विकृत रूप है जो अंततः पतन का कारण बनता है।

इसलिए, यह चेतावनी अत्यंत तीव्र और स्पष्ट है कि जम्बुक (साधु, संन्यासी) को अपने इस नीच और अपमानजनक शरीर से तुरंत मुक्ति पाना चाहिए। यहाँ शरीर केवल शारीरिक आवरण नहीं, अपितु उन सभी नकारात्मक गुणों, कर्मों और भावों का प्रतीक है जो व्यक्ति के पतन के कारण हैं। इसका त्याग ही आत्मशुद्धि और आत्मोन्नति की प्रथम शर्त है।

अहंकार, कुप्रवृत्तियाँ, और सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का उल्लंघन मनुष्य को दैवीय गुणों से दूर करता है। इसलिए, शुद्धता और समर्पण के मार्ग पर चलने के लिए, इन विकृतियों को त्यागना अनिवार्य है, अन्यथा जीवन न केवल स्वार्थी और नीच बन जाता है, बल्कि समाज और धर्म के लिए भी हानिकारक सिद्ध होता है।