श्लोक १२-२१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
नाहारं चिन्तयेत्प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत् ।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते ॥ ॥१२-२०॥
प्राज्ञ व्यक्ति न केवल आहार के विषय में चिंतन करता है, बल्कि केवल धर्म के विषय में ही चिंतन करता है, क्योंकि आहार मनुष्यों के जन्म के साथ सह-जात होता है।

आहार केवल शरीर की भौतिक आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसका मानव जीवन में व्यापक और दार्शनिक महत्व है। मनुष्य के जन्म के साथ आहार का जन्म होना यह सूचित करता है कि जीवन की शुरुआत से ही एक निरंतर संबंध रहता है। किन्तु इस संबंध के बावजूद, जो सतत आवश्यक है, वह केवल आहार नहीं, बल्कि धर्म है। धर्म ही वह एकमात्र तत्व है जिसके विषय में प्राज्ञ को चिंतन करना चाहिए।

आहार के प्रति केवल भौतिक दृष्टिकोण रखना अधूरा है, क्योंकि मनुष्य का अस्तित्व केवल भोजन से नहीं, बल्कि उसका नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन भी तय करता है। जब तक व्यक्ति धर्म का चिंतन नहीं करता, वह अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य से दूर रहता है। धर्म का चिंतन मनुष्य को अपनी क्रियाओं के योग्य और अयोग्य पक्ष समझने की क्षमता देता है, जो जीवन के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है।

मनुष्य का जन्म एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें अनेक तत्व सम्मिलित होते हैं। आहार शरीर के लिए जीवनदायी ऊर्जा है, परंतु धर्म आचार, नीति, नैतिकता, और सामाजिक दायित्वों का परिचायक है, जो व्यक्ति को मात्र जीवित रहने से ऊपर उठाकर एक नैतिक और सामाजिक प्राणी बनाता है। इसीलिए प्राज्ञ व्यक्ति का ध्यान केवल आहार पर केन्द्रित नहीं रहता, बल्कि वह धर्म के ऊपर गहन चिन्तन करता है।

यहाँ आहार को जन्म के साथ सहजात बताया गया है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि आहार का संबंध जीवन की भौतिक आवश्यकताओं से है, जबकि धर्म जीवन के उद्देश्य, व्यवहार और सामाजिक जीवन का मूलाधार है। अतः प्राज्ञ के लिए धर्म का चिंतन आहार के चिंतन से भी अधिक आवश्यक है, क्योंकि धर्म के बिना आहार केवल भौतिक शरीर का पोषण कर सकता है, परन्तु जीवन की गूढ़ता और उद्देश्य को नहीं समझा सकता।

आखिर क्या वह जीवन जो केवल भौतिक आवश्यकताओं के लिए समर्पित हो, सार्थक हो सकता है? यदि आहार शरीर को जीवित रखता है, तो धर्म जीवन को सार्थक, न्यायपूर्ण और संतुलित बनाता है। इसलिए, जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए, प्राज्ञ व्यक्ति का चिंतन केवल भौतिकता में सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे धर्म के आयाम में विस्तार करना चाहिए।