यच्छ्रद्धया स्वल्पमुपैति दानम् ।
अनन्तपारमुपैति राजन्
यद्दीयते तन्न लभेद्द्विजेभ्यः ॥ १२-०२॥
दया और श्रद्धा से किया गया दान मात्र की सीमाओं से परे जाकर उसकी वास्तविक महत्ता को स्थापित करता है। जब दान का उद्देश्य केवल दिखावा या संख्यात्मक बड़ा होना होता है, तो उसका प्रभाव तात्कालिक और सीमित रहता है। परंतु जब वह दान आर्तों—जो पीड़ा में हैं, और विप्रों—जो विद्वान हैं, उनके प्रति सहानुभूति और श्रद्धा के भाव से किया जाता है, तब उसका फल अनंत और असीमित हो जाता है।
सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों का स्थान महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे ज्ञान, संस्कार और धार्मिक विधानों के वाहक होते हैं। दान का प्रभाव तभी स्थायी और सार्थक होता है जब वह इन्हीं वर्गों को श्रद्धा और दया के साथ दिया जाए। केवल धन के हस्तांतरण से अधिक महत्व भावों का होता है—श्रद्धा और दया के बिना दिया गया धन जल्दी ही लौट जाता है, वह लाभ नहीं देता।
यह दान समाज की नैतिकता और धर्म की आधारशिला है, जो दुखियों के कल्याण तथा ज्ञान के प्रचार-प्रसार को सुनिश्चित करता है। जो केवल दिखावे के लिए या अनादर के साथ दान देते हैं, वे वास्तविक लाभ से वंचित रहते हैं। इसलिए दान का उद्देश्य केवल देना नहीं, अपितु सही भावना से देना है, तभी वह अपने से कई गुना अधिक लाभ लाता है।
यहाँ दान की गुणवत्ता पर बल दिया गया है—स्वल्प मात्रा में भी यदि श्रद्धा और दया हो, तो वह अनंत फल देता है, जबकि बड़े दान के बावजूद यदि श्रद्धा न हो, तो वह व्यर्थ है। दान का अर्थ केवल भौतिक देने से अधिक है; वह सामाजिक कर्तव्य, आत्मीयता, और मानवीय संवेदनशीलता का द्योतक है।
विचार करें कि यदि समाज में दान की भावना केवल संख्या और परिमाण पर निर्भर हो तो क्या सामाजिक सद्भाव और धर्म की रक्षा संभव होगी? क्या वह धन जिसे श्रद्धा और दया के बिना दिया गया हो, स्थायी रूप से समाज में मूल्य स्थापित कर सकता है? इस दृष्टिकोण से दान की प्रभावशीलता न केवल दान के प्रकार या मात्रा में, बल्कि उसके भाव में निहित है।