आतुरः सर्वक्षेत्रेषु नरः शीघ्रं विनश्यति ॥ ॥१२-१९॥
व्यय को अनियंत्रित रूप से करना, बिना उसका निरीक्षण और नियंत्रण किए, व्यक्ति को अनाथ की स्थिति में छोड़ देता है। अनाथता यहाँ केवल माता-पिता की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपने कर्मों के प्रति असहाय, विवेकहीन और दायित्वहीन होता है। व्यय का अनालोकन स्वभाविक रूप से उस व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक और मानसिक दुर्बलता को दर्शाता है।
कलहप्रियता, यानी विवादों या झगड़ों को पसंद करना, न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामाजिक जीवन में भी विनाशकारी होती है। कलहशील व्यक्ति अपने और अपने परिवेश के लिए संकट का कारण बनता है। ऐसे मनुष्य की ऊर्जा संघर्षों में व्यर्थ चली जाती है, जो अंततः उसे शीघ्र विनाश की ओर ले जाता है।
आतुरता अर्थात् अतिचिंता या अधीरता, चाहे वह कार्यों को लेकर हो या जीवन के अन्य पहलुओं को लेकर, व्यक्ति को स्थिरता से वंचित कर देती है। स्थिर मन और धैर्य के अभाव में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में असफलता का खतरा बढ़ जाता है। यह शीघ्र विनाश का मार्ग प्रशस्त करता है क्योंकि निर्णय दोषपूर्ण और कार्य विक्षिप्त होते हैं।
व्यय, कलहप्रियता, और आतुरता तीन ऐसे गुण हैं जो किसी भी व्यक्ति के जीवन को अस्थिर, असुरक्षित और अन्ततः विनाशकारी बना देते हैं। व्यय का सतत अनियंत्रण आर्थिक पतन का कारण बनता है, कलह जीवन में शान्ति और सौहार्द्र को समाप्त करता है, और आतुरता निर्णयों में त्रुटि उत्पन्न कर जीवन के विविध क्षेत्र प्रभावित करते हैं।
सभी क्षेत्रों में शीघ्र विनाश का अर्थ है कि यह प्रवृत्तियाँ न केवल व्यक्तिगत स्तर पर हानिकारक हैं, बल्कि वे समाज, परिवार, और कार्यक्षेत्र सहित प्रत्येक क्षेत्र में नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। व्यक्ति के जीवन का संपूर्ण ताना-बाना इन गुणों के प्रभाव में फट जाता है।
आत्मनिरीक्षण और विवेकपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता इस प्रकार स्पष्ट होती है कि व्यय की निगरानी, विवादों से दूर रहना, और मानसिक स्थिरता बनाए रखना जीवन की अनिवार्यता है। बिना इन गुणों के, न केवल व्यक्तिगत जीवन, बल्कि सामाजिक और आर्थिक आधार भी अस्थिर हो जाते हैं।