व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥ १२-१७॥
बीमार के लिए औषध मित्र है, और धर्म मित्र है मृत्यु के समय।
जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में मित्रता के स्वरूप और आवश्यकताओं का विश्लेषण आवश्यक है। कहीं भी स्थायी मित्रता नहीं होती, बल्कि परिस्थिति के अनुसार मित्र का रूप बदलता रहता है। विद्या, अर्थात् ज्ञान और शिक्षा, दूर के स्थानों या विदेश में जो व्यक्ति अकेला होता है, उसके लिए सच्चा मित्र बनती है। यह विद्या उस अज्ञान और असहायता से रक्षा करती है जो पराया वातावरण और अपरिचित स्थानों पर आती है।
गृहस्थ जीवन में पत्नी को मित्र माना गया है क्योंकि वह घर के सुख-दुख में साथ रहती है, परिवार का पोषण करती है और मानसिक सहारा देती है। गृहस्थ जीवन के निजी और सामाजिक संकटों में पत्नी की उपस्थिति मित्रता का रूप धारण करती है।
स्वास्थ्य के संकट में, विशेषकर बीमारी में औषधि मित्र बन जाती है। यह मित्रता शारीरिक पीड़ा को कम करती है और स्वास्थ्य की रक्षा करती है। बिना औषधि के स्वास्थ्य संकट में मानव की रक्षा असंभव है, इसलिए औषधि को मित्र का दर्जा दिया गया है।
मृत्यु के समय धर्म ही अंतिम मित्र होता है। जीवन के अंतिम क्षणों में जो व्यक्ति अपने कर्मों और धर्म के मार्ग पर चलता है, वह अपने अंतर्मन के द्वारा मृत्यु को सहजता से स्वीकार कर सकता है। धर्म का सहारा आंतरिक शांति और सम्यक व्यवहार की ओर ले जाता है, जो मृत्यु के भय और अनिश्चितता को दूर करता है।
यह विचार मानव जीवन के विविध पक्षों में मित्रता की स्थिति को दर्शाता है, जो केवल बाहरी संबंधों या सामाजिक बंधनों तक सीमित नहीं, बल्कि परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहती है। मित्रता का सार यह है कि वह संकट के समय सहारा देती है, चाहे वह ज्ञान हो, प्रेम हो, चिकित्सा हो या आंतरिक नैतिक बल।
यह अवधारणा पारंपरिक सामाजिक और व्यक्तिगत मान्यताओं को चुनौती देती है और मित्रता के बहुआयामी स्वरूप को उजागर करती है, जो जीवन के विभिन्न चरणों में आवश्यक संसाधनों और समर्थन के रूप में प्रकट होती है।