श्लोक १२-१४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ट्रवत् ।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ॥ ॥१२-१४॥
जो पराई स्त्रियों को माता के समान, पराए धन को मिट्टी के समान, और सभी प्राणियों को अपने समान देखता है — वही विद्वान है।

सच्चा विवेक दृष्टिकोण में प्रकट होता है, न कि केवल ज्ञान के संग्रह में। यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि विकृत है — वह दूसरों की स्त्रियों को भोग की वस्तु, पराए धन को संग्रह की चीज़, और अन्य प्राणियों को तुच्छ मानता है — तो उसका समस्त ज्ञान व्यर्थ है। ज्ञान का माप इस बात से होता है कि वह व्यक्ति की दृष्टि को कितना पवित्र और सम्यक बनाता है।

जब किसी पुरुष की दृष्टि पराई स्त्रियों को माता के रूप में देखती है, तब उसमें विषयासक्ति के विकार स्वतः विलीन हो जाते हैं। यह दृष्टि केवल संयम नहीं, बल्कि एक सामाजिक उत्तरदायित्व है — स्त्री को एक आत्मसम्मानपूर्ण स्थान देना, उसे उपभोग की नहीं, पूजन की दृष्टि से देखना। यह दृष्टि समाज की नैतिकता को स्थिर करती है और संबंधों में मर्यादा बनाये रखती है।

दूसरा बिंदु — पराए धन को मिट्टी के समान देखना — इस भाव का तात्पर्य केवल त्याग नहीं है, बल्कि यह बोध है कि संग्रह की प्रवृत्ति लोभ को जन्म देती है, और लोभ से ही सारे अधर्म उपजते हैं। यदि कोई व्यक्ति परधन को वैसे ही तुच्छ समझे जैसे कोई सड़क की मिट्टी को देखता है, तो वह अन्याय, चोरी, या भ्रष्टाचार की ओर प्रवृत्त ही नहीं होगा। ऐसे व्यक्ति के भीतर आत्मसंयम और संतोष की दृढ़ नींव होती है।

तीसरा — सभी प्राणियों में अपने जैसे ही आत्मा का दर्शन करना — यह वह मूल बिंदु है जो न्याय, करुणा, और अहिंसा की नींव रखता है। यह दृष्टि व्यक्ति को अहंकार से मुक्त करती है, क्योंकि जब वह देखता है कि हर प्राणी उसके ही समान अनुभव करता है — सुख-दुख, भय-आशा — तो वह उसे कभी भी हानि नहीं पहुँचाएगा। यह समदृष्टि मानवता के सर्वोच्च स्तर की पहचान है।

यह तीनों दृष्टिकोण केवल बाहरी अनुशासन नहीं, बल्कि आंतरिक चेतना के परिष्कार के संकेत हैं। व्यक्ति जब इस स्तर पर पहुँचता है, तब वह पण्डित कहलाने योग्य होता है। पाण्डित्य केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं, बल्कि दृष्टि, संवेदना, और संयम का समुच्चय है। यह मनुष्य को केवल ज्ञानी नहीं बनाता, बल्कि उसे न्यायप्रिय, करुणामय, और समाजोपयोगी बनाता है।