पत्युत्साहयुता भार्या अहं कृष्णचरणोत्सवः ॥ ॥१२-१३॥
संतोष और प्रसन्नता की प्रकृति व्यक्ति और जीव की अंतःप्रवृत्तियों के अनुसार भिन्न होती है। हर वर्ग, जाति, या प्रकृति के जीवों में ऐसे विशिष्ट बिंदु होते हैं जहाँ उन्हें शांति, सुख, या आत्मिक तृप्ति की अनुभूति होती है। ब्राह्मण जैसे आत्मनिष्ठ और यज्ञपरायण व्यक्ति के लिए एक साधारण निमंत्रण भी सम्मान और संतोष का स्रोत बन सकता है, क्योंकि उसमें उसे अपनी सामाजिक, धार्मिक और पारंपरिक भूमिका का मान्यता मिलती है। वह निमंत्रण उसकी आत्म-सिद्धि की अनुभूति का प्रतीक होता है, जिससे उसकी संतुष्टि प्रकट होती है।
गाय एक अत्यंत कोमल और प्राकृतिक जीव है। उसका जीवन सीधे प्रकृति से जुड़ा है, और ताजगी उसकी प्रसन्नता का स्रोत है। जैसे ही वह नवीन, हरी, कोमल घास देखती है, उसमें तृप्ति की लहर दौड़ जाती है। यह तृप्ति उसकी प्रकृति की सरलता, निरहंकारिता और सहजता को दर्शाती है। इसके विपरीत, मानव की कामनाएँ जटिल होती जाती हैं, परंतु गौ का जीवन एक आत्मनियंत्रित उदाहरण प्रस्तुत करता है।
पत्नी का हृदय प्रेम, संरक्षण और सहभागिता से जुड़ा होता है। जब पति प्रसन्न, उत्साही और आशावान होता है, तो वह उस ऊर्जा में भागीदार बनकर स्वयं भी आनंदित होती है। यह तथ्य केवल गृहस्थ जीवन की एक मनोवैज्ञानिक स्थिति नहीं, बल्कि एक गहरी पारस्परिक भावात्मक युक्ति है, जहाँ जीवनसाथी एक-दूसरे के मनोबल का दर्पण बन जाते हैं। यदि पति उत्साहहीन हो, तो पत्नी का मन भी शिथिल हो सकता है — यह परस्पर ऊर्जा का स्थानांतरण है, जो मानसिक स्थिरता और पारिवारिक सामंजस्य का मूल है।
अंत में, आत्मस्वरूप की अभिव्यक्ति आती है — “अहं कृष्णचरणोत्सवः।” यह वाक्य उस परम चेतना की ओर संकेत करता है जो भौतिक स्रोतों से नहीं, अपितु अध्यात्मिक केन्द्र से तृप्ति प्राप्त करता है। जब किसी व्यक्ति की आत्मा प्रभु के चरणों में स्थिर हो जाती है, तब न वह बाहरी साधनों की खोज करता है, न ही अस्थायी सुखों से आकर्षित होता है। यह स्थिति एक अंतःसमर्पण की है, जहाँ व्यक्ति का हर्ष किसी बाहरी आयोजन या वस्तु पर निर्भर नहीं करता, बल्कि उस अनन्त, अविनाशी, करुणामयी शक्ति के चरणों में लीन होकर प्रसन्न रहता है।
यह अंतर दर्शाता है कि प्रत्येक की प्रसन्नता के स्रोत उसकी अंतःप्रवृत्ति, जीवन दृष्टि, और आत्म-चेतना के स्तर पर आधारित होते हैं। जहाँ कुछ को तृप्ति बाह्य कारणों से मिलती है, वहीं किसी-किसी के लिए आंतरिक समर्पण ही परमानंद का स्त्रोत बन जाता है। जो इस सूक्ष्म भेद को समझता है, वही सच्ची प्रसन्नता की खोज में आगे बढ़ सकता है।