तदर्धं जाह्नवीतोयं तदर्धं ग्रामदेवताः ॥ ॥११-०४॥
समय के चक्र में कलियुग की अवधारणा को अनेक शास्त्रों में विस्तृत रूप से समझाया गया है, जहाँ इस युग के दौरान धर्म, नीति, और धार्मिक आचरणों में गिरावट का संकेत मिलता है। इस श्लोक में दस हजार वर्षों तक 'हरि' अर्थात् ईश्वर का इस लोक से परित्याग या अवतरण का अभाव बताया गया है, जो एक अत्यंत गम्भीर स्थिति को दर्शाता है। यहाँ 'हरि' का आशय केवल देवता के प्रत्यक्ष रूप से नहीं, बल्कि उनके आध्यात्मिक और नैतिक प्रभाव से है, जो मानव समाज और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखता है।
धरती का त्याग अर्थात् एक युग का अंत और नया युग प्रारंभ होने का संकेत है, जिसमें आध्यात्मिक और सामाजिक पतन की संभावना अधिक होती है। 'जाह्नवीतोयं' यानि गंगा नदी का आधा प्रवाह रहना आध्यात्मिकता और जीवनदायिनी प्रकृति के घटते प्रभाव को इंगित करता है। नदी और ग्रामदेवता दोनों ही प्रकृति के सजीव प्रतीक हैं, जिनका समान रूप से महत्वपूर्ण स्थान है सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक विश्वासों में। ग्रामदेवताओं का आधा भाग रहना संकेत करता है कि लोक में आध्यात्मिक संरक्षण पूरी तरह से नहीं रहेगा, और केवल आंशिक संरक्षण ही उपलब्ध होगा।
यह व्यवस्था दर्शाती है कि समय के साथ धार्मिक और नैतिक संस्थान कमजोर होते जाएंगे और समाज में असंतुलन व अनिश्चितता की स्थिति आएगी। देवताओं का आंशिक या पूर्ण परित्याग उन आंतरिक संकटों का प्रतीक है, जो व्यक्तियों और समुदायों को मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से प्रभावित करते हैं।
क्या वह युग सामाजिक नियमों के पतन, नैतिक भ्रष्टाचार, और आध्यात्मिक पतन का युग होगा, जहाँ ईश्वर का आशीर्वाद विरल हो? या फिर यह एक परिवर्तित स्थिति है, जो एक नये दौर की तैयारी करती है, जहाँ मानव को अपनी आंतरिक शक्ति और विवेक से जीवन चलाना होगा? ऐसी स्थिति में ग्रामदेवताओं का आधा रहना संकेत देता है कि कुछ पारंपरिक मूल्य और संस्कार आंशिक रूप से जीवित रहेंगे, परन्तु उनकी पूर्ण शक्ति और प्रभाव खत्म हो जाएगा।
समाज और प्रकृति के बीच यह असंतुलन अंततः संतुलन खोजने की प्रक्रिया की शुरुआत भी हो सकता है, जो नव युग की आधारशिला रखेगा। इसलिए, यह युग एक चुनौतीपूर्ण कालखंड है, जहाँ बाहरी देवताओं के अभाव में मानव को अपने अंदर की आध्यात्मिक जागृति और नैतिक चेतना को जगाना होगा।