श्लोक ११-०२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
आत्मवर्गं परित्यज्य परवर्गं समाश्रयेत् ।
स्वयमेव लयं याति यथा राजान्यधर्मतः ॥ ॥११-०२॥
अपने समूह या पक्ष को त्यागकर दूसरे पक्ष का आश्रय लेना चाहिए। जैसे राजा अपने अधर्म के कारण स्वयं ही विनाश को प्राप्त होता है।

यह विचार सत्ता और नीति की राजनीति की कठोर वास्तविकता को उजागर करता है। व्यक्तिगत या समूह की वचनबद्धता, रिश्ते, और स्वार्थ जब नैतिकता और न्याय के विरुद्ध होते हैं, तो उनका त्याग आवश्यक होता है। स्वयं का या अपने वर्ग का अंधराग केवल नाश का कारण बनता है।

राज्य और शासन में, यदि राजा अपने नैतिक दायित्वों का उल्लंघन करता है, तो वह अंततः विनाश की ओर बढ़ता है। यहां एक महत्वपूर्ण दार्शनिक सत्य निहित है कि अधर्म का समर्थन करना स्वयं विनाश को आमंत्रित करना है। सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में, आत्मवर्ग के साथ अंधविश्वास या कट्टरता मानव और राज्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।

परवर्ग का आश्रय लेने का तात्पर्य है कि यदि वर्तमान स्थिति, समूह या पक्ष गलत दिशा में अग्रसर है, तो विवेकपूर्ण निर्णय लेकर उससे दूरी बनानी चाहिए और सही मार्ग या पक्ष को अपना समर्थन देना चाहिए। यह केवल राजनीतिक व्यवहारशास्त्र नहीं, बल्कि नैतिक विवेक का परिचायक भी है।

इसमें व्यक्तिगत और सामूहिक हितों की तुलना में उच्चतर मूल्य जैसे धर्म, न्याय और नैतिकता को प्राथमिकता देने का संदेश है। यह स्वार्थ और पारिवारिक, जातीय या सामाजिक बंधनों से ऊपर उठकर सही और गलत के विवेकपूर्ण मूल्यांकन की आवश्यकता को दर्शाता है। जो व्यक्ति या शासक अधर्म का समर्थन करता है, वह अपने और अपने समाज के लिए विनाश की नींव रखता है।

राजनीति में यह व्यवहारिकता और नैतिकता के बीच की जटिल सीमा को समझना अनिवार्य है। अंधराग में फंसे रहने वाले समूह न केवल खुद को बल्कि समूचे तंत्र को संकट में डाल देते हैं। इसलिए, सच्चा नेतृत्व और विवेक तभी संभव है जब अधर्म का त्याग कर धर्म या न्याय के पक्ष में समर्पण किया जाए।

इस दृष्टिकोण से, यह शाश्वत नीति जीवन के हर स्तर पर लागू होती है जहां व्यक्तिगत या समूह हितों से ऊपर उठकर सही निर्णय लेना आवश्यक होता है, जो अंततः विनाश से रक्षा करता है और स्थिरता प्रदान करता है।