श्लोक ११-०१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता ।
अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः ॥ ॥११-०१॥
दानशीलता, प्रिय बोलना, धैर्य और उचित ज्ञान — ये चार जन्मजात गुण अभ्यास से प्राप्त नहीं होते।

मानव व्यवहार और सामाजिक संबंधों में कुछ गुण इतने गहरे, स्वाभाविक और जन्मजात होते हैं कि उन्हें केवल अभ्यास या बाहरी प्रयास से अर्जित करना संभव नहीं। दातृत्व अर्थात उदारता, जो कि निस्वार्थ भाव से दूसरों को देना है, यह केवल सिद्धांत या ज्ञान से नहीं बल्कि अंतःकरण की स्वाभाविक प्रवृत्ति से उत्पन्न होता है। इसका अर्थ है कि उदारता की प्रकृति जन्मजात होती है और अभ्यास द्वारा निर्मित नहीं की जा सकती।

प्रियवक्तृत्व, अर्थात ऐसा बोलना जिससे सुनने वाला प्रसन्न हो, यह भी एक सहज गुण है। यह केवल तकनीकी भाषा कौशल नहीं, बल्कि भाव और संवेदना की अभिव्यक्ति है। कोई व्यक्ति भले कितनी भी भाषायी कला सीख ले, यदि उसमें हृदय की कोमलता और संवाद की सहजता नहीं है, तो वह प्रियवक्तृत्व नहीं पा सकता।

धीरत्व या संयम एक ऐसी मानसिक स्थिरता और सहनशीलता है जो केवल तर्क से या अनुशासन से आती है, पर इसका आधार व्यक्ति की जन्मजात मानसिक संरचना में होता है। धीरता वह गुण है जो संकटों, आघातों और विपरीत परिस्थितियों में व्यक्ति को संतुलित और स्थिर रखता है। यह अभ्यास से सिखाने योग्य नहीं, बल्कि जन्मजात संवेदनशीलता और अनुभव के संयोजन से विकसित होता है।

उचितज्ञता अर्थात सही ज्ञान का होना, विशेष रूप से विवेकपूर्ण और समयोचित निर्णय करने की क्षमता, केवल पुस्तक ज्ञान या अध्ययन से प्राप्त नहीं होती। यह विवेक जन्मजात बुद्धिमत्ता, अनुभव और आंतरिक समझ से आती है। अभ्यास द्वारा ज्ञान बढ़ सकता है, पर सही और उपयुक्त निर्णय लेने की क्षमता सहज गुणों पर निर्भर करती है।

इन चारों गुणों का सहज होना आवश्यक है क्योंकि ये जीवन के नैतिक और सामाजिक पक्षों को गहराई से प्रभावित करते हैं। बिना इन गुणों के व्यक्ति का व्यवहार सतत और विश्वसनीय नहीं हो सकता। अभ्यास और शिक्षा बहुधा केवल तकनीकी दक्षता और ज्ञान को बढ़ाते हैं, पर ये सहज गुण मानवीय मूल्यों और चरित्र की गहराई को प्रकट करते हैं।

व्यक्तित्व विकास में यह समझना महत्वपूर्ण है कि कुछ गुण ऐसे हैं जिन्हें न तो कृत्रिम प्रयास से उत्पन्न किया जा सकता है और न ही केवल शिक्षण से सीखा जा सकता है। ये गुण प्राकृतिक प्रवृत्ति, स्वाभाविक अनुभव और आंतरिक भावनाओं से जन्म लेते हैं। अतः व्यक्ति को स्वयं के स्वाभाव को पहचान कर और उसे निखार कर इन गुणों का सशक्तिकरण करना चाहिए, न कि केवल बाहरी अभ्यास में उलझना चाहिए।