श्लोक ११-१७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं परदाराभिमर्शनम् ।
निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते ॥ ॥११-१७॥
देवताओं का दिया हुआ धन, गुरु का दिया हुआ धन और दूसरे के पत्नी के साथ संबंध करना—इनका संचालन सभी प्राणियों में एक पापी व्यक्ति जैसा ही माना जाता है।

धन और संसाधन जीवन के महत्वपूर्ण अंग हैं, परन्तु उनके स्रोत और उपयोग की गुणवत्ता से उनका मूल्य निर्धारित होता है। देवद्रव्यं अर्थात् देवताओं से प्राप्त धन, गुरु द्वारा दिया गया धन, और पर की पत्नी के प्रति अभिमर्श अर्थात संबंध, ये तीनों वस्तुएँ या कार्य, सामाजिक तथा नैतिक दृष्टिकोण से अत्यंत संवेदनशील हैं। इनका सही या गलत उपयोग ही व्यक्ति के चरित्र और समाज में उसकी स्थिति का निर्धारण करता है।

देवद्रव्यं वह धन है जो धार्मिक, नैतिक या आध्यात्मिक कारणों से प्राप्त होता है। इसे केवल सम्मानपूर्वक और न्यायसंगत रूप से उपयोग करना चाहिए। अन्यथा यह पुण्य के स्थान पर पाप का कारण बन जाता है। गुरु द्वारा दिया धन का महत्व भी अतुलनीय है क्योंकि यह केवल भौतिक धन नहीं, बल्कि संस्कारों, ज्ञान और आशीर्वाद का प्रतीक होता है। इसे अपमानित या गलत तरीके से ग्रहण करना अनुचित है।

परदाराभिमर्शन, अर्थात् दूसरे के पत्नी के साथ अनैतिक संबंध रखना, समाज की नैतिकता का गहन उल्लंघन है। यह केवल व्यक्तिगत दोष नहीं, अपितु सामाजिक पतन और अराजकता का कारण भी बनता है। यह कर्म न केवल व्यक्तिगत हानि बल्कि सामाजिक विश्वास और सुरक्षा की जड़ को भी कमजोर करता है।

निर्वाह शब्द यहाँ जीवन के संचालन या पालन-पोषण के संदर्भ में प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है इन तीनों वस्तुओं या क्रियाओं का पालन करना या उनसे जुड़ा रहना। यदि कोई व्यक्ति देवद्रव्यं, गुरुद्रव्यं और परदाराभिमर्शन में लिप्त होता है, तो उसे विप्रश्चाण्डाल अर्थात दुष्ट, निकृष्ट और पापी माना जाता है। यहाँ विप्र का अर्थ है ब्राह्मण या ज्ञानी व्यक्ति, जबकि चाण्डाल का अर्थ है वह जो समाज की मर्यादाओं का उल्लंघन करता है।

यह स्थिति एक विरोधाभास प्रस्तुत करती है—ज्ञानी या समाज में उच्च समझ के व्यक्ति का कृत्य यदि पापपूर्ण हो तो वह चाण्डाल के समान हो जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि केवल जन्म या सामाजिक स्थिति से व्यक्ति की श्रेष्ठता नहीं आती, बल्कि उसके कर्म ही उसकी असली पहचान हैं। कर्मों की पवित्रता और नैतिकता ही समाज में सम्मान और विश्वास का आधार हैं।

इस प्रकार, व्यवहार और जीवन के संचालन में नैतिकता का पालन अत्यंत आवश्यक है। धन के स्रोत, उसका प्रयोग और संबंधों की मर्यादा का उल्लंघन व्यक्ति के व्यक्तित्व और समाज के लिए घातक सिद्ध होता है। सामाजिक व्यवस्था की स्थिरता और व्यक्ति की नैतिक शुद्धता के लिए इन तीनों से दूर रहना अनिवार्य है। यह नियम न केवल सामाजिक अनुशासन का विषय है, बल्कि आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का भी आधार है।