विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शूद्र उच्यते ॥११-१४॥
यह विचार व्यापार और व्यवसाय की जातिगत व्याख्या करता है, जिसमें वस्तुओं के प्रकार के आधार पर व्यापारी की सामाजिक स्थिति निर्धारित होती है। मूल्यवान, शुद्ध और पौष्टिक वस्तुओं जैसे तेल, नील, कौसुम्भ, मधु, मक्खन आदि के विक्रेता को 'विप्र' कहा गया है, जो सम्मान और शुद्धता का प्रतीक है। ये वस्तुएं शुद्धता और धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ी हैं, इसलिए इन्हें बेचने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ और उच्च जाति का माना गया।
इसके विपरीत, मद्य (शराब) और मांस के विक्रेता को 'शूद्र' कहा गया है, जो सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से नीच या अपवित्र माना गया। मद्य और मांस का सेवन अनेक संस्कृतियों और धर्मों में पाप या निंदनीय कर्म माना गया है, इसलिए इस प्रकार के व्यापार को नीच श्रेणी में रखा गया।
यह जातिगत भेद व्यापार की नैतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं से प्रेरित है, जहाँ व्यवसाय का प्रकार न केवल आर्थिक गतिविधि, बल्कि सामाजिक और धार्मिक पहचान भी तय करता है। इस प्रकार की व्याख्या यह दिखाती है कि व्यापारिक क्रिया केवल आर्थिक लेनदेन नहीं, बल्कि सामाजिक मूल्यांकन का भी विषय होती है।
जातिगत और व्यवसायगत श्रेणीकरण सामाजिक व्यवस्था की कठोरता और समृद्धि दोनों का परिचायक है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वस्तु और सेवा की प्रकृति, साथ ही उनके सामाजिक और धार्मिक प्रभाव, व्यापारी की सामाजिक स्थिति निर्धारित करते हैं।
यह व्यवस्था यह भी सूचित करती है कि किस प्रकार व्यापार में चयन और निर्णय सामाजिक मानकों और नैतिकता के अनुरूप होते हैं, जिससे समाज में व्यवस्था, अनुशासन और विशिष्टता बनी रहती है।