श्लोक १०-०८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न जायते ।
मलयाचलसंसर्गान्न वेणुश्चन्दनायते ॥ १०-०८॥
जो उपदेश अंतःसार से रहित होता है, वह किसी काम का नहीं होता; जैसे मालयाचल (हिमालय) के स्पर्श से बाँस नहीं चंदन नहीं बनता।

वास्तविक ज्ञान या उपदेश तभी मूल्यवान होता है जब उसमें अंतःसार, यानी गहन सार और आत्मसात् किया गया तत्व हो। बिना इस अंतःसार के दिया गया उपदेश केवल शब्दों का पुट होता है, जिसका प्रभाव अस्थायी और निरर्थक होता है। मनुष्य पर प्रभाव डालने वाले उपदेश तभी सफल होते हैं जब वे उसके हृदय और मन में उतरें, उसकी समझ और चरित्र में परिवर्त्तन लाएँ।

यह विचार दर्शाता है कि ज्ञान या शिक्षा की सच्ची शक्ति उसके प्रभाव में है, न कि केवल उसके अभिव्यक्ति में। कोई भी वस्तु अपने परिवेश से गहराई से प्रभावित होती है; परंतु यदि वह वस्तु अपने मूल गुणों से असंबंधित है, तो वह परिवर्तित नहीं हो सकती। इसी प्रकार, उपदेश का भी असली मूल्य तभी प्रकट होता है जब वह उस व्यक्ति के मनोवृत्ति और चरित्र के अनुरूप हो, जिसमें वह प्रवाहित हो रहा है।

यहां मालयाचल से अभिप्राय हिमालय से है, जो शुद्ध और महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। हिमालय के स्पर्श से बाँस (वेणु) न तो चन्दन (कीमती लकड़ी) बन जाता है न ही उसका रूप परिवर्तन होता है। इसी प्रकार, यदि मनुष्य के भीतर सार तत्व की कमी हो तो उस पर कितनी भी अच्छी शिक्षा दी जाए, उसका प्रभाव व्यर्थ होता है।

इस तर्क से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा और उपदेश केवल बाहरी शब्दों का संचार नहीं हैं, बल्कि वे उस ज्ञान का परिचायक हैं जो व्यक्ति के चरित्र में गहराई तक समा जाए। यदि उपदेश अन्तःसार से रहित होगा, तो वह न केवल असफल होगा, बल्कि कभी-कभी भ्रम और झूठे प्रभाव भी पैदा कर सकता है।

मनुष्य की समझ और आत्मा की गहराई तक पहुँचने वाला उपदेश ही व्यवहार और जीवन में सच्चे परिवर्तन का कारण बनता है। यह ज्ञान का आधारभूत सत्य है कि बिना आत्मसात् किए हुए ज्ञान केवल सूचना या झूठी चमक मात्र है।

इसलिए, उपदेश या शिक्षा का मूल्यांकन केवल उसके शब्दों से नहीं, बल्कि उसके प्रभाव और अंतःसार से किया जाना चाहिए। जैसे हिमालय के संपर्क में आने से बाँस चन्दन नहीं बनता, वैसे ही बिना अंतःसार के उपदेश मनुष्य को गहराई से नहीं छू पाते। यह ज्ञान की प्रभावशीलता और सार की महत्ता को अभिव्यक्त करता है।