श्लोक १०-०७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
येषां न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलां न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ ॥१०-०७॥
जिनके पास विद्या नहीं है, न तपस्या है, न दान है, न ज्ञान है, न शील (अच्छा आचार) है, न गुण हैं, और न धर्म है, वे मृत्युलोक (धरणी) पर बोझ बनकर मनुष्य रूप में पशु की भांति विचरते हैं।

मानव जीवन में विद्या, तपस्या, दान, ज्ञान, शील, गुण और धर्म का होना अत्यंत आवश्यक है। ये सातों तत्व व्यक्ति को मात्र शरीरधारी मनुष्य से श्रेष्ठ बनाते हैं। इनके बिना मनुष्य का अस्तित्व केवल शारीरिक ही रह जाता है, जो समाज और संसार के लिए बोझ साबित होता है।

विद्या ज्ञान का आधार है, जो मनुष्य को अज्ञानता के अंधकार से बाहर निकालती है। तपस्या मानसिक और आत्मिक अनुशासन है, जो व्यक्ति के चरित्र को निर्मल बनाता है। दान आत्मीयता और परोपकार की भावना को बढ़ावा देता है, जिससे व्यक्ति समाज में सहयोगी और सहानुभूतिपूर्ण बनता है।

ज्ञान केवल सूचनाओं का संचय नहीं, बल्कि समझ और विवेक है, जो कर्मों को सही दिशा में ले जाता है। शील मनुष्य के आचार-व्यवहार का परिचायक है, जो उसके सामाजिक समरसता और नैतिकता को परिभाषित करता है। गुण वे आंतरिक मूल्य हैं जो व्यक्तित्व को सशक्त और प्रभावशाली बनाते हैं। और धर्म वह नियामक सिद्धांत है जो मनुष्य को सही और गलत के बीच अंतर समझाता है तथा उसके जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन स्थापित करता है।

इन सभी के अभाव में मनुष्य का स्वरूप केवल बाहरी होता है, लेकिन उसका आंतरिक स्वभाव पशु से अधिक कुछ नहीं होता। ऐसे मनुष्य समाज में बोझ बन जाते हैं, क्योंकि वे न तो स्वयं की उन्नति कर पाते हैं और न ही दूसरों के लिए कोई लाभकारी कार्य करते हैं। वे केवल भौतिक रूप से जीवन यापन करते हुए पशु समान भटकते हैं।

यह विचार चिंतन का विषय है कि एक जीव मात्र मानव शरीर धारण करके मनुष्य कहलाता है या वे गुण जो मनुष्य को मनुष्य बनाते हैं, उनके अभाव में वह केवल जीव मात्र है। क्या समाज और राष्ट्र ऐसे लोगों को सहन कर सकता है जो केवल बोझ बने रहें? यदि हम केवल बाहरी शरीर को मनुष्य मानेंगे तो समाज का विकास और नैतिकता की स्थापना संभव नहीं। इसीलिए जीवन में विद्या, तपस्या, दान, ज्ञान, शील, गुण और धर्म का होना अनिवार्य है।

इन तत्वों के अभाव में मनुष्य केवल अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है, उसका आचरण और स्वभाव पशु समान हो जाता है। मनुष्य मात्र होने का अर्थ केवल शारीरिक रूप से मानव होना नहीं, बल्कि उसके आचार, विचार और कर्मों में मानवता होना आवश्यक है। मानवता का यह स्वरूप समाज को उन्नत, न्यायपूर्ण और समृद्ध बनाता है।