श्लोक १०-०९

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥ १०-०९॥
जिसके पास स्वयं बुद्धि या विवेक नहीं है, उसके लिए शास्त्र क्या कर सकता है? जैसे आँखों से रहित व्यक्ति के लिए दर्पण का क्या उपयोग है?

प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि, विवेक, और आत्म-ज्ञान जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में निर्णय लेने की मूल क्षमता है। बिना इस अंतर्निहित बुद्धि के बाहरी ज्ञान, जैसे शास्त्र, अपने आप में व्यर्थ होता है। ज्ञान का सार बुद्धि के बिना अधूरा है, क्योंकि शास्त्र केवल मार्गदर्शन प्रदान करते हैं; उनका सही उपयोग तभी संभव है जब विवेक हो।

दर्पण और आंखों का उदाहरण इस बात को सूक्ष्म रूप से प्रस्तुत करता है कि बाहरी उपकरण या ज्ञान तभी फलदायक होते हैं जब उनकी स्वीकृति और समझकर्ता हो। आंखों के बिना दर्पण दिखावा मात्र है, उससे लाभ नहीं होता। इसी प्रकार, बिना प्रज्ञा के शास्त्र केवल अक्षरों का संग्रह मात्र रह जाता है।

यहां दर्पण और आंखों का रूपक केवल दृश्य उपकरण का नहीं, बल्कि समझने, आत्मसात करने और निर्णय लेने की क्षमता का प्रतीक है। शास्त्रों में लिखित ज्ञान का सही लाभ तभी संभव है जब व्यक्ति में उसे ग्रहण करने, मनन करने और व्यवहार में लाने की बुद्धि हो। यदि वह बुद्धिमान नहीं, तो वह शास्त्रों को पढ़कर भी गुमराह हो सकता है या अधूरा ज्ञान रख सकता है।

प्रज्ञा के अभाव में ज्ञान सिर्फ सैद्धांतिक हो जाता है, जिसमें व्यवहारिकता और परिणामों की समझ नहीं होती। यह अज्ञान से भिन्न है, क्योंकि अज्ञान में ज्ञान नहीं होता; परंतु बुद्धिहीन व्यक्ति के पास ज्ञान होने के बाद भी उसे समझने और सही दिशा में उपयोग करने का सामर्थ्य नहीं होता।

इसलिए, अध्ययन और शिक्षा की सार्थकता बुद्धि के विकास में है, न कि केवल ज्ञानी बनने में। बुद्धि के बिना ज्ञान मनुष्य को निर्णयों में अंधा बना देता है, और वह अनर्थ का कारण बन सकता है। बुद्धिमत्ता वह चाबी है जो शास्त्रों के भंडार को खुला करती है और ज्ञान को जीवन में प्रभावी बनाती है।