श्लोक १०-०२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् ।
शास्त्रपूतं वदेद्वाक्यः मनःपूतं समाचरेत् ॥ १०-०२॥
दृष्टि को शुद्ध रखनी चाहिए, इसलिए पाँव को स्थिर और स्वच्छ रखना चाहिए। वस्त्र शुद्ध होने चाहिए और जल शुद्ध पीना चाहिए। वाक्य शास्त्रों के अनुसार बोलने चाहिए तथा मन को भी शुद्ध और संयमित रखना चाहिए।

इन्द्रियों, वाणी, वस्त्र और मन की शुद्धता आचरण की एक समग्र प्रणाली का आधार है। दृष्टि यदि दूषित हो तो वह कलुषित सोच और कर्म को जन्म देती है। अतः दृष्टि को शुद्ध रखना आवश्यक है, जिसमें न केवल देखने की क्रिया की स्पष्टता शामिल है, बल्कि दुष्ट और अपवित्र वस्तुओं से दूर रहना भी आता है। इसी प्रकार पाँव को स्थिर और स्वच्छ रखना यह सूचित करता है कि व्यक्ति का आचरण दृढ़ और निश्चित होना चाहिए, भटकाव रहित और स्थिर पथ पर होना चाहिए।

वस्त्र और जल की शुद्धता बाह्य शुद्धता का प्रतिनिधित्व करती है। वस्त्र हमारे सामाजिक और नैतिक व्यक्तित्व का प्रतीक हैं; गंदे या अपवित्र वस्त्र व्यक्ति की आंतरिक अस्वच्छता को दर्शाते हैं। जल की शुद्धता जीवन के आधार का संकेत है—जो मन और शरीर दोनों को प्रभावित करती है। जल यदि अशुद्ध होगा तो वह शरीर और मन दोनों के लिए विष साबित होगा।

शास्त्रों के अनुसार वाक्य का शुद्ध होना शब्दों की शास्त्रीय मर्यादा में बोलने का आह्वान करता है। इसका अर्थ है कि वाणी में सत्यता, संयम और उचित समय एवं स्थान का ध्यान रहना चाहिए। झूठ, हानि पहुँचाने वाली बातें, या अनुचित वक्तव्य शुद्ध वाक्य के विपरीत हैं। यह समाज में नैतिकता और विश्वसनीयता का आधार है।

मन की शुद्धता इन सभी से भी ऊपर है क्योंकि मन ही क्रिया और विचारों का स्रोत है। मन का शुद्ध होना—अर्थात् उसमें द्वेष, लोभ, मोह, और विकारों का अभाव—सही व्यवहार का मूल है। मन यदि अशुद्ध होगा तो दृष्टि, वाणी, और कर्म भी दूषित होंगे। इसलिए मन को संयमित और शुद्ध बनाए रखना सर्वोच्च प्राथमिकता है।

यह समग्र शुद्धता जीवन में अनुशासन, नैतिकता, और आध्यात्मिकता के समन्वय को प्रतिबिंबित करती है। बाह्य और आंतरिक शुद्धता के अभाव में कोई भी उच्च उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता। इस संतुलन से जीवन के हर पहलू में स्पष्टता, स्थिरता, और नैतिकता स्थापित होती है।