सुखार्थिनः कुतो विद्या सुखं विद्यार्थिनः कुतः ॥ १०-०३॥
सुख और विद्या के बीच जो द्वंद्वाभास उत्पन्न होता है, वह मनुष्य के व्यवहार और लक्ष्य की स्पष्टता की ओर संकेत करता है। सुखार्थी व्यक्ति का मन केवल भौतिक सुखों और आनंदों की ओर आकर्षित होता है, जिससे वह विद्या का त्याग कर देता है क्योंकि विद्या के लिए आवश्यक संघर्ष, त्याग और समर्पण सुख की सहज प्रवृत्ति के विरुद्ध होते हैं। वहीं, जो विद्या को प्राप्त करना चाहता है, वह अपने आराम और सुख को त्याग कर कठोर परिश्रम, संयम और तपस्या का मार्ग अपनाता है।
यह द्वंद्वाभास दो भिन्न प्रवृत्तियों को दर्शाता है, जो मनुष्य के लक्ष्य निर्धारण में भ्रम पैदा करते हैं। सुखार्थी के लिए विद्या का त्याग स्वाभाविक है क्योंकि विद्या सुख के मार्ग से भिन्न है, और विद्या प्राप्त करने के लिए सुख का त्याग आवश्यक है। इस स्थिति में, दोनों ही पक्षों के लिए विरोधाभास स्पष्ट होता है कि सुख के लिए विद्या नहीं मिलती और विद्या के लिए सुख नहीं।
यह विरोधाभास मनुष्य के मानसिक संघर्ष को प्रकट करता है, जहाँ इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और प्राथमिकताएँ विपरीत दिशा में होती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति संतुलित और स्थायी जीवन के बजाय क्षणिक सुख या अधूरी विद्या में उलझा रहता है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या सुख और विद्या का संगम संभव है? या फिर क्या मनुष्य को इन दोनों के बीच चयन करना होगा? यह स्थिति गहन आत्मचिंतन और जीवन के उद्देश्य की स्पष्ट समझ की मांग करती है।
सुख और विद्या के इस परस्पर विरोधी स्वभाव को समझे बिना जीवन के निर्णय करना असंभव है। इसलिए, व्यक्ति को यह स्पष्ट करना होगा कि उसका लक्ष्य क्या है: केवल सुख या स्थायी ज्ञान। यह स्पष्टता ही जीवन के मार्ग को सहज और प्रभावी बनाती है।
इस संघर्ष के अंतर्गत, विद्या केवल सुख के लिए नहीं, बल्कि जीवन की गहराई में जाकर सत्य और समझ की प्राप्ति के लिए होती है। सुख केवल भौतिक या मानसिक तात्कालिक आनंद है, जबकि विद्या जीवन की वास्तविकता को समझने और उसमें सही दिशा निर्धारित करने की क्षमता है। इसलिए, सुखार्थी विद्या का त्याग करता है और विद्यार्थी सुख का त्याग, दोनों ही एक तरह से सीमित दृष्टिकोण दर्शाते हैं।