पयसोऽष्टगुणं मांसां मांसाद्दशगुणं घृतम् ॥ १०-१९॥
यह विचार एक गहन आर्थिक और सांस्कृतिक सच्चाई को दर्शाता है: वस्तुओं का रूपांतरण और उनका परिष्करण उनकी मूल्यवृद्धि को दशार्त करता है। अन्न, जो मूलभूत खाद्य पदार्थ है, जब पिसा जाता है तो उसका पोषण और उपयोगिता बढ़ जाती है। पिसा हुआ अन्न अनाज की तुलना में दस गुना अधिक फलदायी माना गया है, जो यह इंगित करता है कि कच्ची वस्तु की तुलना में उसका रूपांतरित रूप अधिक मूल्यवान होता है।
इसी प्रकार, पिसे हुए अनाज से प्राप्त दूध, जो दस गुना अधिक उपयोगी है, यह बताता है कि प्रकृति के संसाधनों को साधनों और तकनीकों द्वारा आगे परिष्कृत किया जाना चाहिए। दूध, जो कि काले अन्न के रूप से निकाला जाता है, अपने पोषण और उपयोगिता के कारण सीधे अन्न से अधिक महत्वपूर्ण होता है।
फिर, दूध से मांस का रूपांतरण होता है, जिसमें आठ गुना लाभ बताया गया है। यह सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से मांस के महत्व को इंगित करता है, जो न केवल पोषण बल्कि ऊर्जा और शक्ति का स्रोत है। मांस का घी में परिणत होना, जिसे दस गुना अधिक लाभकारी माना गया है, उस उन्नति की चरम सीमा को दर्शाता है जहां ऊर्जा और संपदा का सर्वोत्तम रूप प्राप्त होता है। घी, जो प्राचीन भारतीय सभ्यता में अत्यंत मूल्यवान माना जाता है, सम्पूर्णता, शक्ति, और समृद्धि का प्रतीक है।
इस श्रृंखला में वस्तुओं की गुणवत्ता, शक्ति और महत्व का क्रम दर्शाया गया है, जो साधारण से विशिष्ट और उत्कृष्ट की ओर बढ़ता है। यह उस प्राचीन आर्थिक दर्शन की झलक है जो वस्तुओं के रूपांतरण, उपभोग और उपयोगिता की गहराई को समझता है। यह केवल भौतिक लाभ की चर्चा नहीं, बल्कि संसाधनों के सतत सुधार, परिष्कार और मूल्य-वृद्धि का दार्शनिक दर्शन प्रस्तुत करता है।
विचार करने वाली बात यह है कि यह प्रणाली प्राकृतिक वस्तुओं को मानव श्रम, कौशल, और बुद्धि के माध्यम से परिष्कृत करने का संकेत देती है। क्या केवल कच्ची वस्तु का संग्रह ही समृद्धि लाता है, या उसका परिष्कृत और उपयोगी रूप ही वास्तव में मूल्यवान है? यह आर्थिक चिन्तन इस बात पर बल देता है कि समृद्धि की असली कुंजी वस्तुओं के रूपांतरण और उनके गुणवत्तापूर्ण विकास में निहित है।
इसका आध्यात्मिक और सामाजिक अर्थ भी गहरा है: जैसे पदार्थों का मूल्य उनके विकास और परिष्कार से बढ़ता है, वैसे ही मानव जीवन और समाज का विकास भी ज्ञान, अनुभव और नैतिकता के परिष्कार से होता है। वस्तुओं की इस श्रेणीबद्धता से यह समझ आता है कि कच्चे रूप से श्रेष्ठतम रूप तक की यात्रा ही प्रगति की असली परिभाषा है।