श्लोक १०-१८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुद्धि- स्तथापि भाषान्तरलोलुपोऽहम् ।
यथा सुधायाममरेषु सत्यां स्वर्गाङ्गनानामधरासवे रुचिः ॥ १०-१८॥
गीर्वाण और वाणी में विशिष्ट बुद्धि होने के बावजूद भी मैं भाषान्तर में बहुत रुचि रखने वाला हूँ। जैसे अमर लोक के स्वर्गांगनाओं के मधुर रस में मेरा आकर्षण होता है।

वाणी और भाषा के बीच गहरा अन्तर होता है। वाणी का तात्पर्य है वह मूल भाषण या मूल अभिव्यक्ति जो किसी की बुद्धि और विवेक को प्रकट करती है। विशिष्ट बुद्धि अर्थात् गहन और स्पष्ट ज्ञान होना वाणी की गुणवत्ता को निर्धारित करता है। परन्तु इसके बावजूद भी भाषा का अनुवाद या भाषान्तर करने की इच्छा होना मनुष्य की अभिरुचि और जिज्ञासा को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि केवल मूल स्रोत की समझ ही पर्याप्त नहीं होती, बल्कि विभिन्न भाषाओं, व्यंजनों और रूपों में संवाद स्थापित करने की भी लालसा होती है।

यह स्थिति कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है। पहली बात, यह बहुभाषी या बहुभाषिकता की ओर इशारा करती है, जो सामाजिक और सांस्कृतिक संवाद में आवश्यक है। दूसरी बात, यह दर्शाता है कि ज्ञान का प्रसार केवल एक भाषा या रूप में सीमित नहीं रह सकता। अनुवाद और भाषान्तर ज्ञान को विस्तारित करने, नए संदर्भों में प्रस्तुत करने और उसकी गहराई को बढ़ाने का माध्यम होते हैं।

जैसे अमर लोक की स्वर्गांगनाओं का रस अतिमधुर होता है, वैसे ही भाषान्तर की प्रक्रिया भी रससिक्त और आकर्षक होती है। यह रस न केवल भाषाई सौंदर्य है, बल्कि ज्ञान और अनुभूति का वह मधुर आनंद भी है जो विविध रूपों में व्यक्त होता है। अमर लोक के स्वर्गांगनाओं के रस की तुलना भाषान्तर की रुचि से करना यह संकेत देता है कि भाषान्तर में गहन आनंद और आकर्षण निहित है।

इस दृष्टि से भाषान्तर की लालसा ज्ञान की अभिवृद्धि और उसकी सार्वभौमिकता की अभिव्यक्ति है। भाषान्तर न केवल भाषाई परिवर्तन है, बल्कि वह ज्ञान और अनुभव की सीमा को पार कर नए स्तर पर पहुँचने का प्रयास है। यह सिद्धांत संवाद, शिक्षा, और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए भी अत्यंत आवश्यक है।

समाज और संस्कृति की जटिलताओं को समझने और उनमें संवाद स्थापित करने के लिए भाषान्तर आवश्यक होता है। यह कई बार जटिल संस्कृतियों और परंपराओं के बीच पुल का काम करता है, जिससे विभिन्न समुदायों में समझ और सहयोग बढ़ता है।

इस प्रकार, भाषान्तर की लालसा और उसमें रस होना केवल भाषाई कौशल नहीं, बल्कि व्यापक दृष्टिकोण, समावेशिता, और ज्ञान के सतत विस्तार का प्रतीक है। यह मानवीय संप्रेषण के विविध पहलुओं को समृद्ध करता है और ज्ञान को सभी के लिए सुलभ बनाता है।