नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं निर्ममे ।
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते लक्ष्मीपते केवलं
त्वत्पादाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते ॥ ॥१०-१७॥
जीवन में चिंता और भय का मुख्य कारण निर्भरता और असुरक्षा की भावना होती है। जब कोई व्यक्ति सच्चे आधार, परमात्मा या संपूर्ण पालनहार की उपस्थिति और संरक्षण को जानता है, तो वह चिंता से मुक्त हो जाता है। इस स्थिति में मानव का मन स्थिर, निर्मल और निर्भय रहता है। इसका अर्थ यह नहीं कि जीवन में कठिनाइयाँ या समस्याएँ नहीं आएंगी, बल्कि यह कि मनुष्य की आंतरिक स्थिति शांति और विश्वास से पूर्ण होती है।
अस्पष्ट और अनिश्चितता से भरे संसार में, जहाँ कोई भी स्थायी नहीं है, परमात्मा की भक्ति और उनके चरणकमल की सेवा व्यक्ति को स्थिरता प्रदान करती है। यह सेवा मात्र कर्मकाण्ड या बाहरी आचार नहीं, बल्कि गहन समर्पण और आत्मिक अनुशासन है, जिससे मनुष्य का मन एकाग्र और निर्मल हो जाता है। लक्ष्मीपति का स्मरण धन-सम्पदा मात्र नहीं, बल्कि समग्र जीवन में स्थिरता और सुरक्षा का प्रतीक है।
माँ के दूध का उदाहरण यहाँ जीविका और पालन-पोषण की अनिवार्यता को दर्शाता है। यदि वह भी न हो तो व्यक्ति के जीवन में निर्वाह कैसे संभव होगा? यह प्रश्न मानवीय निर्भरता की गहराई को उजागर करता है। किन्तु जब समस्त निर्भरताएँ परमात्मा की शरण में समाहित हो जाती हैं, तो चिंता स्वतः समाप्त हो जाती है।
यह विचार मन में बार-बार उत्पन्न होकर, व्यक्ति को स्वयं के अहं और संसार की सीमाओं से ऊपर उठने के लिए प्रेरित करता है। चरणकमल की सेवा केवल पूजा-पाठ या धार्मिक कृत्यों से परे, जीवन की प्रत्येक क्रिया में एक अनुग्रह और आत्मीयता का अनुभव कराती है। यही सेवा और श्रद्धा निरंतर मनुष्य को समय के प्रवाह में स्थिर और केंद्रित बनाए रखती है।
इस प्रकार, स्थिर श्रद्धा, परमपद की प्राप्ति और समर्पित सेवा से मनुष्य को चिंता, भय और असुरक्षा से मुक्त होकर एक स्थायी शांति और आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति होती है। यह स्थिति स्वयं में समृद्धि, सुख और मोक्ष का आधार बनती है।