श्लोक १०-१३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या
वेदः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ॥ १०-१३॥
ज्ञानी पुरुष वृक्ष के समान है, उसकी जड़ संध्या है, वेद उसकी शाखाएँ हैं और धर्मकर्म उसके पत्ते हैं। इसलिए जड़ की सावधानीपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि यदि जड़ कट जाए तो शाखाएँ और पत्ते नहीं रहेंगे।

ज्ञान और धर्म की तुलना वृक्ष से की गई है, जिसमें मूल, शाखा और पत्ते स्पष्ट प्रतीक हैं। यहाँ ज्ञानी पुरुष का मूल संध्या के रूप में है, जो आचार, नियम और दैनिक कर्मों का प्रतिनिधित्व करती है। संध्या एक प्रकार की संरचना है जो व्यक्ति को उसकी जड़ों से जोड़ती है, अर्थात् उसके मूल सिद्धांतों, संस्कारों और आध्यात्मिक अनुशासन से।

वेद को शाखाओं के समान माना गया है क्योंकि वे विभिन्न ज्ञान शाखाएँ हैं जो व्यक्ति के जीवन को समृद्ध करती हैं। शाखाएँ उस वृक्ष की जीवनधारा होती हैं जो पत्तों को पोषण देती हैं। इसी प्रकार वेद का ज्ञान व्यक्ति को धर्मकर्म के पत्तों से जोड़ता है।

धर्मकर्म को पत्तों के रूप में देखा गया है, जो वृक्ष के बाहरी प्रकट रूप होते हैं। ये कर्म और आचार व्यक्ति की पहचान होते हैं, जो समाज में उसकी प्रतिष्ठा और प्रभाव को दर्शाते हैं। यदि मूल — अर्थात् संध्या और उसके अंतर्निहित नियम — सुरक्षित नहीं रहेंगे, तो शाखाएँ (वेद) और पत्ते (धर्मकर्म) स्वाभाविक रूप से क्षीण हो जाएंगे।

इस दृष्टि से, मूल की सुरक्षा अत्यंत आवश्यक है क्योंकि वह सम्पूर्ण ज्ञान और कर्म की आधारशिला है। यदि मूल छिन्न हो जाता है, तो शाखाएँ और पत्ते, अर्थात् ज्ञान और कर्म दोनों नष्ट हो जाते हैं। यह चेतावनी स्पष्ट करती है कि आध्यात्मिक अभ्यास और नियमों की रक्षा के बिना ज्ञान और कर्म स्थिर और फलदायक नहीं रह सकते।

यह विचार धार्मिक और दार्शनिक अनुशासन की स्थिरता पर बल देता है। जड़ को सुरक्षित रखना जीवन के समग्र विकास के लिए अनिवार्य है, जैसे ही जड़ कमजोर पड़ती है, संपूर्ण वृक्ष अस्वस्थ हो जाता है। इसी प्रकार, ज्ञान और कर्म के स्थायित्व के लिए मूल सिद्धांतों, नियमों और अभ्यास की निरंतर रक्षा आवश्यक है।

इस विषय में यह भी सवाल उठता है कि क्या बाहरी कर्म और ज्ञान बिना आंतरिक अनुशासन और नियमों के स्थिर रह सकते हैं? इसका उत्तर इस श्लोक में नकारात्मक है। कर्म और ज्ञान केवल तभी फलदायी होते हैं जब वे आंतरिक मूल से जुड़े और सुरक्षित हों। इसलिए, आंतरिक अनुशासन की रक्षा व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का आधार बनता है।