श्लोक ०१-०६

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान् रक्षेद्धनैरपि ।
आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ॥ ०१-०६॥
आपत्ति के समय धन की रक्षा करनी चाहिए, पत्नी की रक्षा धन से भी करनी चाहिए, और आत्मा (स्वयं) की रक्षा सदा करनी चाहिए — चाहे वह पत्नी और धन के त्याग से ही क्यों न हो।

जीवन में संकट की घड़ी अनिवार्य है और विवेकशील व्यक्ति वही होता है जो उस समय अपने साधनों और संबंधों का समुचित प्रबंधन करता है। यह श्लोक मूल्य निर्धारण की उस गूढ़ प्रक्रिया को स्पष्ट करता है, जहाँ व्यक्ति को यह समझना होता है कि किस वस्तु का त्याग कब और क्यों करना चाहिए।

धन, परिवार और आत्मा — ये तीन स्तरों पर जीवन का आधार हैं, परंतु इनकी प्राथमिकता समान नहीं हो सकती। धन साध्य नहीं, साधन है। इसलिए संकट की घड़ी में यदि धन का उपयोग करके स्वयं या अपने परिजनों की रक्षा की जा सकती है, तो यह पूर्णतः उचित और आवश्यक है।

पति-पत्नी का संबंध गहराई और समर्पण से युक्त होता है, और इसीलिए यदि किसी स्थिति में धन को त्यागकर संबंधों को बचाया जा सके, तो ऐसा करना श्रेयस्कर माना गया है। लेकिन जीवन में ऐसे भी क्षण आते हैं जहाँ आत्मरक्षा सर्वोपरि हो जाती है — क्योंकि आत्मा (या स्वयं) के बिना न धन का कोई महत्व है, न संबंधों का।

यह दृष्टिकोण केवल भौतिक जीवन की रक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि नैतिक और आत्मिक रक्षा की ओर भी संकेत करता है। यदि कोई स्थिति व्यक्ति की मर्यादा, आत्मसम्मान, या अस्तित्व को ही संकट में डाल दे, तो ऐसे में किसी भी भौतिक संसाधन या संबंध का मोह त्याग देना ही धर्म और विवेक की दृष्टि से उचित होता है।

यह पदानुक्रम — धन से पहले संबंध, और संबंधों से पहले आत्मा — हमें जीवन में सही प्राथमिकता निर्धारण की शिक्षा देता है। जब व्यक्ति इस ज्ञान के साथ अपने संसाधनों और संबंधों का प्रबंधन करता है, तो वह संकटों में भी संतुलन, विवेक और धर्म का पालन कर सकता है।

समाज में बहुत बार लोग धन के मोह में या संबंधों के दबाव में अपने आत्मस्वरूप, आत्मसम्मान या जीवन-मूल्यों की बलि चढ़ा देते हैं। यह शिक्षाप्रद संदेश हमें चेताता है कि जीवन का सर्वोच्च मूल्य स्वयं का संरक्षण है — भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से।