श्लोक ०१-०७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः ।
कदाचिच्चलते लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति ॥ ॥०१-०७॥
आपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए; धनवानों को आपत्ति कैसी? लक्ष्मी (धन-संपत्ति) कभी-कभी डगमगाती है—संचित धन भी नष्ट हो जाता है।

सामाजिक संरचना में धन का स्थान अत्यंत केंद्रीय है, परंतु यह धारणा स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए प्रयोजनमूलक विवेक की अपेक्षा करती है। यह सूत्र एक ऐसे यथार्थ की ओर संकेत करता है, जिसे सामान्यतः उपेक्षित किया जाता है—कि लक्ष्मी, जो एक ओर समृद्धि की देवी मानी जाती है, स्वभावतः चंचला है। उसकी अनिश्चितता का स्वभाव, चाहे कितना ही संचित और सुरक्षित धन क्यों न हो, उसे जोखिम में डाल देता है।

इस बिन्दु पर यह विचार अत्यंत सूक्ष्म प्रतीत होता है कि जो व्यक्ति पहले से ही श्रीमान् (धनवान) है, उसे आपत्ति क्यों हो? परन्तु यही प्रश्न अपनी गूढ़ता में उत्तर समाहित रखता है। धन की उपस्थिति, यदि विवेक और दूरदृष्टि से संयुक्त नहीं हो, तो वह स्वयं विनाश का कारण बन सकती है। इतिहास के पन्नों में असंख्य उदाहरण मिलते हैं, जहाँ अत्यंत संपन्न व्यक्ति संकटों में घिर गए क्योंकि उन्होंने संकटों की सम्भावना को असंभव मान लिया। यह आत्मतुष्टि और असावधानी का घातक संयोग है।

धन का संचय यदि केवल उपभोग या प्रदर्शन के लिए किया जाए, तो वह व्यर्थ हो सकता है; किंतु यदि वह आपत्ति के समय में सही प्रकार से नियोजित किया जाए—जैसे कि सामाजिक सुरक्षा, संकटनिवारण, या आन्तरिकसंगठन की सुदृढ़ता हेतु—तभी वह स्थायी अर्थ प्रदान करता है। इस श्लोक में संचित धन के विनाश की चेतावनी, केवल भौतिक रूप से नहीं है, यह एक मानसिक स्थिति का भी निरूपण है। जो व्यक्ति स्वयं को पूर्णतः सुरक्षित समझकर कोई योजना नहीं बनाता, वह किसी भी असामयिक परिवर्तन से हतप्रभ हो जाता है।

यह कथन नीति की मूलभूमि पर स्थित है: परिवर्तन अपरिहार्य है। 'लक्ष्मी चलित है'—यह भाव केवल एक रूपक नहीं, बल्कि उस सार्वभौम चक्र का संकेत है, जिसमें स्थितियाँ पलभर में परिवर्तित हो सकती हैं। अतः विवेकशील व्यक्ति को चाहिए कि वह वर्तमान समृद्धि को भविष्य के संकटों का संभाव्य उत्तर माने और उसी अनुरूप अपनी संरचना गढ़े। आपत्ति के लिए पूर्वविधान करना कायरता नहीं, अपितु उच्चतम प्रज्ञा है।

इस पाठ में एक गहन प्रश्न निहित है: क्या वास्तविक समृद्धि वह है जो वर्तमान में धन के रूप में है, या वह विवेक है जो संकट के पूर्व उसमें से कुछ को भविष्य के लिए सुरक्षित रखता है? जब लक्ष्मी स्वयं चंचला हो, तब उसकी रक्षा का उपाय भी स्थायित्व का नहीं, प्रत्युत चंचलता के प्रति सजगता का होना चाहिए।

सत्य तो यह है कि हर प्रकार का संचित धन—चाहे वह भौतिक हो, या सामाजिक प्रतिष्ठा, ज्ञान, या सत्ता—यदि समय के साथ उसके उपयोग और रक्षा की योजना न हो, तो वह अपने भार में ही आत्मघातक हो जाता है। यह श्लोक एक प्राचीन दर्शन को समर्पित है—संपत्ति को 'स्थायी' न मानो, उसे बुद्धिसंपन्न 'उपयोग के हेतु' मानो। यही नीति की दृष्टि है, यही यथार्थ का कथन है।