श्लोक ०१-०४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च ।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ॥ ॥०१-०४॥
मूर्ख शिष्य को उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का पालन करने से, और दुखी लोगों के संग रहने से विद्वान भी हतोत्साहित होकर पतनशील हो जाता है।

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च ।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ॥


मानव बुद्धि यदि स्थिर न हो, तो वह बाहर की परिस्थितियों से हीन नर्तक की भाँति घुमाई जा सकती है। किन्तु जब वह सूक्ष्मदृष्टिसम्पन्न हो, तो वह यह समझने लगता है कि जीवन की पीड़ा केवल बाह्य आपदाओं का परिणाम नहीं, बल्कि वे संदर्भ भी हैं जिनमें वह अपनी ऊर्जा व्यय करता है। ऐसे ही कुछ संदर्भों की यह उक्ति गहरी मीमांसा करती है—तीन प्रकार की स्थितियाँ, जो किसी भी बुद्धिमान को धीरे-धीरे मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक रूप से पतन की ओर ले जा सकती हैं।

मूर्खशिष्योपदेश

जहाँ शिक्षा का प्रवाह एकपक्षीय हो, वहाँ उसका परिणाम या तो उबाऊ बनता है या विध्वंसक। यदि गुरु का प्रयास बौद्धिक उद्दीपन हेतु हो, परन्तु शिष्य की ग्रहणशक्ति जड़ हो, तो यह सम्बन्ध निष्फल हो जाता है। मूर्ख शिष्य के समक्ष ज्ञान का संप्रेषण वैसा ही है जैसे निर्जल भूमि पर सिंचन — बीज पड़े रहते हैं, परन्तु अंकुरण नहीं होता। इससे केवल समय और ऊर्जा का विनाश नहीं होता, बल्कि शिक्षक का मनोबल भी क्षीण होता है।

एक जिज्ञासु शिष्य, चाहे वह प्रारंभ में मूढ़ ही क्यों न हो, यदि प्रश्न करता है, विचार करता है, तो वह शिक्षक के ज्ञान को संजीवनी प्रदान करता है। परन्तु यदि शिष्य में जिज्ञासा का लोप है, यदि वह केवल आकृति से शिक्षा-ग्राही प्रतीत होता है पर अंतर्मन से जड़ है, तो शिक्षण न केवल व्यर्थ है, बल्कि वह शिक्षकों के भीतर के उत्साह को भी शुष्क बना देता है। दीर्घकाल में, यह स्थिति शिक्षक को आत्मविस्मृति तक पहुँचा सकती है — वह अपने ज्ञान को मूल्यहीन समझने लगता है, और यह बौद्धिक पतन की प्रारम्भिक अवस्था है।

इसमें एक दार्शनिक विरोधाभास भी निहित है — शिक्षक की भूमिका में निहित सेवा का तात्पर्य यह नहीं कि वह हर स्थिति में शिक्षण करता ही जाए। विवेक यही कहता है कि जहाँ प्रज्ञा के बीज अंकुरित नहीं हो सकते, वहाँ प्रसारण रोक देना ही उचित है। अन्यथा, यह अंधकार के साथ संवाद करने जैसा है — जिसमें उत्तर कभी आता ही नहीं, और एकाकी बोलता मन धीरे-धीरे मौन हो जाता है।

दुष्टस्त्रीभरण

दुष्ट स्त्री का आश्रय केवल लौकिक संकट नहीं उत्पन्न करता, अपितु वह आत्मविनाश की गहनतम प्रक्रिया बन जाती है। इस कथन का नारीविरोध से कोई सम्बन्ध नहीं; यहाँ 'दुष्ट' विशेषण नैतिक विकृति, छल, वासना और अधर्म की ओर संकेत करता है — वह विकार जो संबंधों में विष घोलता है और मनुष्य को विवेकहीन बना देता है।

जिस प्रकार अग्नि का पोषण यदि अनुचित ईंधन से किया जाए, तो वह केवल घर को जलाने का कार्य करती है, उसी प्रकार दुष्ट नारी के साथ संबंध — विशेषतः यदि वह आश्रित संबंध हो — तो वह आर्थिक, मानसिक और सामाजिक तीनों स्तरों पर व्यक्ति का विनाश करता है।

यहाँ 'भरण' शब्द के दो अर्थों का संगम है — एक, भौतिक अर्थ में उसका भरण-पोषण करना, और दूसरा, मानसिक तथा भावनात्मक बंधन में उसकी निरन्तरता। दोनों ही अवस्थाएँ, यदि विकृति से युक्त नारी के साथ जुड़ी हों, तो वे व्यक्ति को अपार दुःख देती हैं। पुरुष को सामाजिक रूप से उत्तरदायित्वपूर्ण, नियंत्रित और कर्तव्यनिष्ठ माना गया है। यदि उसका जीवनसाथी इन मूल्यों को नष्ट करता है — विश्वासघात, लोभ, असत्य, और अपवित्रता द्वारा — तो उस पुरुष का पतन केवल व्यक्तिगत न रहकर सार्वजनिक भी हो जाता है। वह अपनी मर्यादा, प्रतिष्ठा, और आत्मसम्मान को खोने लगता है।

आश्चर्य यह नहीं कि कोई पतित हो जाता है; आश्चर्य यह है कि वह अपने पतन को देख भी नहीं पाता। मोह और आसक्ति की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि व्यक्ति विष को अमृत समझने लगता है। ऐसे संबंधों में, वह अपनी विचारशक्ति को खो देता है, निर्णय-क्षमता को तिरस्कृत करता है, और धीरे-धीरे एक ऐसे जाल में फँस जाता है जहाँ से मुक्ति केवल पीड़ा के माध्यम से ही सम्भव होती है।

दुःखितैः सम्प्रयोग

पीड़ा की संगति, चाहे वह सहानुभूति के कारण हो या नैतिक कर्तव्य के कारण, एक सीमा के बाद व्यक्ति को स्वयं पीड़ाग्रस्त बना देती है। जब कोई अपने जीवन में अत्यधिक दुःख भोग रहा होता है, तब वह अपनी वेदना को साझा करने के लिए स्वाभाविक रूप से किसी के निकट जाता है। किन्तु यदि वह केवल अपनी ही व्यथा कहता रहे, और दूसरे के लिए कोई द्वार न खोले, तो यह संबंध परस्पर पोषणकारी न रहकर केवल एकपक्षीय भार बन जाता है।

दुःख की लहरें संक्रमणशील होती हैं। जब कोई व्यक्ति निरन्तर पीड़ितों की संगति में रहता है, तो वह भी एक प्रकार की निराशावादी लय में प्रवेश कर जाता है। यह लय, धीरे-धीरे उसकी रचनात्मकता, उत्साह, और उद्देश्यबोध को क्षीण कर देती है। यहाँ तक कि जो व्यक्ति पहले स्पष्टदर्शी, उत्साही और कर्मशील था, वह भी एक अनिर्णय, शिथिलता और विषाद में लिप्त हो जाता है।

यह एक प्रकार का बौद्धिक संक्रमण है। जैसे रोग फैलते हैं, वैसे ही मनोविकार भी फैलते हैं। यदि कोई लगातार विषादमय संवादों, व्यर्थ की शिकायतों, और हताशा के वातावरण में रहे, तो वह या तो उससे स्वयं को बचाने के लिए कठोर बन जाता है, या फिर उसका अंग बन जाता है। दोनों ही अवस्थाएँ एक प्रकार की विफलता हैं — एक, संवेदना की विफलता; दूसरी, विवेक की।

सच्चे सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार में दूरी और करुणा का समन्वय आवश्यक है। केवल इसलिये कि कोई दुःखी है, यह आवश्यक नहीं कि वह सच्चा है, या उसकी पीड़ा में डूब जाना नैतिक कर्तव्य है। विवेक यही सिखाता है कि जब तक किसी के दुःख में सामर्थ्यवर्धन की संभावना हो, तब तक संगति उचित है। परन्तु जहाँ दुःख केवल आत्म-रति बन जाए — एक आदत, एक मोह, या एक स्वार्थ — वहाँ उससे दूरी बनाना ही आत्मसंरक्षण है।

समष्टिगत दृष्टि

तीनों ही स्थितियाँ — जड़ शिष्य, विकारी स्त्री और विषादग्रस्त संगति — व्यक्ति के बौद्धिक एवं नैतिक अवसान की त्रिविध भूमि बनती हैं। इनका प्रभाव एक सतत क्षरण की प्रक्रिया के रूप में सामने आता है। विशेषकर वे व्यक्ति जो ज्ञान, विवेक और आत्मबोध की साधना करते हैं — उनके लिए ये बाधाएँ और भी गंभीर हैं। क्योंकि जितनी ऊँचाई पर कोई स्थित होता है, उसका पतन उतना ही गहन होता है।

एक शिक्षित, विवेकी और आत्मसंयमी मनुष्य का भी पतन हो सकता है — यह विचार स्वयं में एक चेतावनी है। यह मनुष्य को आत्ममुग्धता से बाहर निकालता है। ज्ञान कोई बंकर नहीं है, जो उसे हर संकट से बचा ले। विवेक की रक्षा केवल आत्मचेतना से होती है, और यह चेतना इन्हीं सूक्ष्म संदर्भों में अभ्यास पाती है।

मनुष्य को स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिए — क्या मेरी शिक्षा का प्रवाह कहीं व्यर्थ में तो नहीं बह रहा? क्या मेरे संबंध मेरी ऊर्जा को पोषित कर रहे हैं या नष्ट कर रहे हैं? क्या मैं दुःखी जनों की सेवा कर रहा हूँ या उनके साथ डूब रहा हूँ? इन प्रश्नों से बचकर कोई भी आत्मरक्षा संभव नहीं। आत्मरक्षा, अन्ततः, आत्मसाक्षात्कार की गहराइयों से ही उपजती है — और वह तब होता है जब व्यक्ति अपनी संगति, अपने कर्म और अपने विचारों की गुणवत्ता का परीक्षण करना आरम्भ करता है।